Marathon Runner Fauja Singh Died In India At 114: दुनिया के सबसे प्रेरणादायक मैराथन धावकों में गिने जाने वाले फौजा सिंह का सोमवार को 114 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. यह एक ऐसा अंत था जो जितना दर्दनाक था, उतना ही अप्रत्याशित भी. वह अपने पैतृक गांव ब्यास पिंड (जालंधर, पंजाब) में रोज़ की तरह टहलने निकले थे, तभी एक अनजान वाहन ने उन्हें टक्कर मार दी, जिससे उनकी मौत हो गई. यह घटना सिर्फ एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं थी, बल्कि एक युग का अंत था, उस युग का जिसे फौजा सिंह ने खुद अपने पैरों से बनाया था.
89 की उम्र में नई शुरुआत
एक पुरानी कहावत है, “दूसरी शुरुआत करने में कभी देर नहीं होती.” फौजा सिंह इस कहावत का जीता-जागता प्रमाण बन गए. उन्होंने 89 वर्ष की उम्र में मैराथन दौड़ना शुरू किया, वो उम्र जब ज्यादातर लोग जीवन से संन्यास ले चुके होते हैं.
उनकी असली कहानी तब शुरू हुई जब उनका जीवन त्रासदियों से घिर चुका था. 90 के दशक के मध्य में उन्होंने पहले अपने छोटे बेटे को खोया, फिर कुछ ही समय बाद पत्नी और बेटी भी चल बसीं. गहरे अवसाद में डूबे फौजा सिंह को उनके परिजनों ने इंग्लैंड के एसेक्स, इलफोर्ड भेज दिया, जहां उन्होंने दौड़ने की शुरुआत की.
शोक से शक्ति तक का सफर
फौजा सिंह घंटों श्मशान घाट पर बैठा करते थे, और यही देखकर उनके परिवार ने उन्हें इंग्लैंड भेजा, ताकि माहौल बदले. वहां उन्होंने एक स्थानीय रनिंग क्लब में दौड़ना शुरू किया, जो उनके लिए थेरैपी बन गया. उनका जुनून ऐसा था कि बहुत जल्द वह अंतरराष्ट्रीय मैराथन धावक बन गए.
लंदन, न्यूयॉर्क, हांगकांग और अन्य प्रसिद्ध मैराथनों में उन्होंने हिस्सा लिया और कई आयु वर्ग रिकॉर्ड तोड़े. 90 साल की उम्र में उनके जैसे प्रदर्शन से पेशेवर धावक भी हैरान थे.
100 साल में रचा इतिहास, लेकिन ‘गिनीज’ ने नकारा
फौजा सिंह की सबसे चर्चित दौड़ 2011 में टोरंटो में हुई, जब वह 100 वर्ष के हो गए थे. आयोजकों ने उस रेस का नाम ही उनके नाम पर रखा – “The Fauja Singh Invitational”. उन्होंने अपने आयु वर्ग में कई विश्व रिकॉर्ड तोड़े, लेकिन गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने उन्हें मान्यता नहीं दी, क्योंकि उनके पास जन्म प्रमाणपत्र नहीं था — वे उस भारत में पैदा हुए थे, जहां उस दौर में जन्म दर्ज ही नहीं होता था.
ओलंपिक मशालवाहक और महारानी से मुलाकात
फौजा सिंह को 2012 लंदन ओलंपिक में मशाल उठाने का सम्मान मिला. उन्हें ब्रिटेन की दिवंगत महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने भी सम्मानित किया. उनके जीवनी लेखक खुशवंत सिंह के मुताबिक, महारानी से मिलने से पहले फौजा सिंह को ये समझाना पड़ा कि “बाबा, सिर्फ हाथ मिलाना है, गले मत लगाना!”
दिल बड़ा, लालच शून्य
दौड़कर कमाए हर एक पैसे को दान में देने वाले फौजा सिंह का दिल उतना ही विशाल था, जितनी उनकी प्रेरणा. गुरुद्वारों में जब लोग उन्हें पैसे देते, तो वह तुरंत दानपात्र में डाल देते. वह पढ़ नहीं सकते थे, लेकिन संख्याओं की गहरी समझ रखते थे.
स्ट्रॉबेरी शेक और पिन्नियां – फौजा की छोटी-छोटी खुशियां
एक अनुशासित धावक होने के बावजूद, फौजा सिंह में एक रूमानी पंजाबी भी बसता था. उन्हें घी, गुड़ और आटे से बनी पिन्नियां बेहद पसंद थीं और मैकडॉनल्ड्स का स्ट्रॉबेरी शेक भी उनकी खास ख्वाहिशों में से था.
अंत जितना अचानक, उतना ही अस्वीकार्य
अंत में फौजा सिंह भारत लौट आए थे, जहां उन्होंने तीन साल तक अपने गांव में सादगी से जीवन बिताया. लेकिन वह जो सफर शुरू कर चुके थे, वह थमा नहीं और शायद यही उनकी सबसे बड़ी विरासत है.
फौजा सिंह: दौड़ से कहीं आगे
फौजा सिंह का जीवन सिर्फ मैराथन की कहानी नहीं है, ‘यह दृढ़ संकल्प, आत्म-संयम, और दूसरी पारी को जिंदा जीने की गाथा है.’ उन्होंने दिखा दिया कि उम्र सिर्फ एक संख्या है और जो दौड़ने का जज्बा रखता है, उसके लिए जिंदगी कभी थमती नहीं.
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