सृष्टि के प्रारंभ से ही श्रीमद् भागवत कथा है : जीयर स्वामी

जब से सृष्टि है तभी से ही श्रीमद् भागवत कथा है. परमानपुर चतुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने प्रवचन करते हुए कहा की आज से 50000 करोड़ वर्ष पहले से सृष्टि है.

By AMLESH PRASAD | July 12, 2025 10:39 PM
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आरा. जब से सृष्टि है तभी से ही श्रीमद् भागवत कथा है. परमानपुर चतुर्मास्य व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने प्रवचन करते हुए कहा की आज से 50000 करोड़ वर्ष पहले से सृष्टि है तथा उसी समय से सभी धार्मिक ग्रंथ भी हैं. वेद, पुराण, उपनिषद्, इतिहास इत्यादि भी सृष्टि की शुरुआत से ही है. जितने भी धार्मिक ग्रंथ हैं. उसकी रचना समय-समय से अन्य लोगों के द्वारा की गई है. लेकिन जिस प्रकार से कोई भी घटना पहले घटती है. जबकि उसकी लेखनी या रचना बाद में होती है. उसी प्रकार से जब इस पूरे ब्रह्मांड में केवल एक मात्र श्रीमन नारायण थे. उस समय से श्रीमद्भागवत इत्यादि ग्रंथ भी है। अब आपके मन में एक सवाल होगा कि श्रीमद् भागवत की रचना आज से 6000 वर्ष पहले व्यास जी के द्वारा किया गया तो श्रीमद् भागवत आज से 50000 करोड़ वर्ष पहले कैसे था. सृष्टि के प्रारंभ में भगवान श्रीमन नारायण और लक्ष्मी जी यही दो लोग थे. उस समय सबसे पहले भगवान श्रीमन नारायण के द्वारा श्रीमद् भागवत कथा लक्ष्मी जी को सुनाया गया. लक्ष्मी जी ने भगवान श्रीमन नारायण से विनती किया कि भगवान सृष्टि का विस्तार किया जाए. मीडिया संचालक रविशंकर तिवारी ने बताया कि स्वामी जी ने बताया कि जिसके बाद भगवान श्रीमन नारायण के नाभि से कमल और कमल से ब्रह्मा जी हुए. जिसके बाद ब्रह्मा जी के द्वारा इस पूरे सृष्टि का विस्तार किया गया. आगे अलग-अलग समय पर श्रीमद् भागवत कथा को ब्रह्मा जी के द्वारा नारद जी को सुनाया गया नारद जी के द्वारा व्यास जी को श्रीमद् भागवत की रचना करने के लिए कहा गया. इस प्रकार से श्रीमद् भागवत कथा को कई लोगों के द्वारा अलग-अलग लोगों को सुनाया गया. लेकिन श्रीमद् भागवत को पहले किसी ने लेखनी के रूप में नहीं लिखा. इसीलिए जब व्यास जी के द्वारा श्रीमद् भागवत को लेखनी के रूप में लिखा गया तब से कहा जाता है कि श्रीमद् भागवत की रचना व्यास जी के द्वारा किया गया. लेकिन पहले श्रीमद् भागवत, वेद, पुराण, ग्रंथ, उपनिषद श्रुति के रूप में था। यानि कहने और सुनने के रूप में ही था. बाद में समय-समय से इसकी रचना अलग-अलग महापुरुषों के द्वारा की गई

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