छपरा. गंगा सिंह महाविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की पुण्यतिथि पर परिचर्चा आयोजित हुई. परिचर्चा को संबोधित करते हुए हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ संतोष कुमार सिंह ने कहा कि हिंदी के प्रथम तिलस्मी लेखक देवकीनंदन खत्री का बिहार से गहरा लगाव था. हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में उनके उपन्यास चंद्रकांता का बहुत बड़ा योगदान रहा है. उन्होंने चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र-मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोंडा, कटोरा भर खून और भूतनाथ जैसी कालजयी रचनाएं लिखीं. चंद्रकांता का रसास्वादन करने के लिए तो कई गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी भाषा सीखी. भारतेंदु के उपरांत वह प्रथम और सर्वाधिक प्रकाशमान तारे के रूप में हिंदी साहित्य में आये थे. इस अवसर पर हिंदी के प्राध्यापक डॉ कमाल अहमद ने कहा कि देवकीनंदन खत्री ने तिलिस्म, ऐय्यार और ऐय्यारी जैसे शब्दों को हिंदी भाषियों के बीच लोकप्रिय बना दिया. अपनी लेखनी से जितने हिंदी पाठक उन्होंने उत्पन्न किये, उतने किसी और रचनाकार ने नहीं किया. उन्होंने वाराणसी में लहरी प्रेस की स्थापना की और हिंदी मासिक पत्र सुदर्शन को प्रारंभ किया था. परिचर्चा में भाग लेते हुए प्राध्यापक डॉ धर्मेंद्र कुमार सिंह ने बताया कि बाबू देवकीनंदन का जन्म बिहार में ही हुआ था. उनका ननिहाल मुजफ्फरपुर में था और गया में उनका व्यवसाय रहा. उन्होंने महाराज बनारस से चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका लिया था. उनकी युवावस्था अधिकतर इन जंगलों में ही बीती थी. इन्हीं जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की पृष्ठभूमि में अपनी तिलिस्म तथा ऐय्यारी के कारनामों की कल्पनाओं को मिश्रित कर उन्होंने चंद्रकांता उपन्यास की रचना की थी. परिचर्चा में भाग लेते हुए प्राध्यापक डॉ हरिमोहन ने कहा कि 19वीं शताब्दी के अंत में लाखों पाठकों ने बहुत ही चाव और रुचि से खत्री जी के उपन्यास पढ़े और हजारों लोगों ने केवल उनके उपन्यास पढ़ने के लिए ही हिंदी सीखी थी. इस परिचर्चा में प्राध्यापक डॉ रुद्र नारायण शर्मा, प्रो राजीव कुमार गिरि, अभय रंजन सिंह, अजीत कुमार के अलावा छात्रों की सक्रिय सहभागिता रही.
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