Hul Diwas 2025: ब्रिटिश शासन और जमींदारों के अत्याचार के खिलाफ आदिवासियों के विद्रोह की कहानी है ‘हूल क्रांति’

Hul Diwas 2025: ब्रिटिश शासन, साहूकारों और जमींदारों के अत्याचार के खिलाफ 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में हूल क्रांति का आह्वान किया गया. भोगनाडीह की धरती से शुरू हुए इस विद्रोह में फूलो-झानो ने भी सक्रिय भूमिका निभायी. आदिवासियों के हूल के कारण अंग्रेजों को मार्शल लॉ लागू करना पड़ा.

By Rupali Das | June 30, 2025 10:14 AM
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Hul Diwas 2025 | आनंद जायसवाल, दुमका: 19वीं सदी के मध्य में जमीन की लूट, कर वसूली और दमन के खिलाफ आदिवासी समुदाय में असंतोष था. ब्रिटिश शासन, साहूकारों और जमींदारों के अत्याचार से संताल समाज इस कदर त्रस्त था कि उसने ऐसा हूल किया कि अंग्रेजों को मार्शल लॉ लागू करना पड़ा.

हूल क्रांति में फूलो-झानो की सक्रिय भूमिका

संतालों के संरक्षण के लिए अंग्रेजों को विशेष काश्तकारी कानून बनाने पड़े और संताल परगना नाम से अलग जिला बना. इसी क्रांति को हूल क्रांति के नाम से जाना जाता है. मालूम हो कि उस दौर में महिलाओं के लिए समाज में काफी रूढ़िवाद था. लेकिन हूल क्रांति का नेतृत्व करने वाले सिदो-कान्हू की बहनें फूलो-झानो ने परंपराओं को तोड़ते हुए आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई.

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ब्रिटिश हुकूमत ने दिखाई सख्ती

दरअसल 1854-55 में बंगाल के वीरभूम, भागलपुर और आसपास के इलाके में संतालों से इस इलाके की जमीन ब्रिटिश हुकूमत तेजी से समतल करा रही थी और खेती योग्य बनवा रही थी. यही दौर था, जब ईस्ट इंडिया कंपनी रेल की पटरियां भी बिछवाने का काम जोर-शोर से करा रही थी. संताल खेत तैयार करने के बाद जोत आबाद कर रहे थे. फसल खूब अच्छी होने लगी, तो ब्रिटिश हुकूमत ने कर वसूली में सख्ती दिखानी शुरू कर दी.

संतालों के अनाज पर जमींदारों की बुरी नजर

अब ब्रिटिश हुकूमत ने संतालों को जमीन से बेदखल करने की साजिश भी रचनी शुरू कर दी. उनकी मेहनत व खून पसीने से उपजे अनाज पर अंग्रेजों के वफादार महाजनों-जमींदारों की बुरी नजर पड़ने लगी. संतालों को अहसास होने लगा था कि बोंगा द्वारा दी गयी जमीन पर उनकी अपनी मेहनत से प्राप्त अनाज का लाभ उनसे ज्यादा ब्रिटिश हुकूमत उठाने में लगी है, तो उनका विद्रोही तेवर सामने आने लगा.

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सिदो मुर्मू ने किया विद्रोह का नेतृत्व

पहले तो संतालों ने महाजनों जमींदारों के खिलाफ मोर्चा खोला, लेकिन जब ब्रिटिश हुक्मरानों ने जमीदारों का ही साथ देना शुरू किया, तो उनके खिलाफ भी संताल और इस क्षेत्र के रहनेवाले गैर संताल उम्र होते गये. गुस्सा बढ़ता गया. अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए उन्हें न उनकी गोली की परवाह थी और न ही उनके दक्ष सैनिकों की. अपने स्तर से ही इसका समाधान करने का निश्चित किया गया. इस विद्रोह में नेतृत्वकर्ता बनें सिदो मुर्मू.

भोगनाडीह से हूल क्रांति का आह्वान

सिदो ने तब 30 जून 1855 को भोगनाडीह में जुटने का आह्वान किया. इसी के साथ हूल क्रांति का आह्वान हुआ. भागलपुर, कहलगांव और दक्षिण में रानीगंज और पश्चिम में पूरे वीरभूम में मुनादी के तौर पर परंपरा के अनुरूप साल का पत्ता घुमवाया गया. तय दिन को दूर-दराज इलाकों से दस हजार की भीड़ जुटी. लोगों ने कलकत्ता (कोलकाता) कूच करने का निर्णय लिया. अपने स्तर से निर्मित तीर-धनुष, नगाड़े और मांदर को लेकर अदम्य उत्साह दिखाया. इस आंदोलन में सिदो का साथ उनके भाई कान्हू मुर्मू, चांद-भैरव, बहनें फूलो-झानो और कई आदिवासी क्रांतिकारियों ने दिया.

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