गिरीश्वर मिश्र; शिक्षा की प्रक्रिया ज्ञान अर्जित करने का माध्यम है और इसकी उपयोगिता समझ कर सभ्य देशों ने इसे संस्थागत रूप दिया है. आज आदमी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा, औसतन लगभग 20 वर्ष की आयु तक, इस संस्था की गहन निगरानी में बीतता है. शैक्षिक संस्थाओं में रहते हुए विद्यार्थी देखकर, सुनकर, प्रयोग कर और समझ कर जीवन मूल्यों को अपनाता है. साथ ही व्यवहार के स्तर पर वह कुछ नैतिक मानकों का अभ्यास करता है, जिनका व्यक्तित्व निर्माण की दृष्टि से दूरगामी प्रभाव पड़ता है. आज ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दृष्टि से अग्रणी राष्ट्र अपनी शिक्षा व्यवस्था पर विशेष ध्यान दे रहे हैं. ठीक इसके विपरीत एक सशक्त गणतंत्र बनने के बाद भी भारत में शिक्षा अनेक विसंगतियों से जूझती आ रही है. दुर्भाग्य से औपनिवेशिक काल में ज्ञान और संस्कृति के अप्रतिम प्रतिमान के रूप में अंग्रेजियत छाती चली गयी. भारतीयों को अशिक्षित ठहरा कर उनके लिए अंग्रेजों द्वारा शिक्षा की जगह कुशिक्षा का प्रावधान किया गया. यह कुछ इस तरह हुआ मानों अंग्रेजी शिक्षा विकल्पहीन है और विकसित होने के लिए अनिवार्य है. परिणाम यह हुआ कि भारतीय शिक्षा के समग्र, समावेशी और स्वायत्त स्वरूप विकसित करने की बात धरी की धरी रह गयी. स्वतंत्र भारत में अपनाई गयी शिक्षा की नीतियां, योजनाएं और उनका कार्यान्वयन प्रायः पुरानी लीक पर ही अग्रसर हुआ. स्वतंत्र होने के बाद भी पश्चिमी मॉडल के जाल से आज भी हम उबर नहीं पाये हैं और हेर-फेर लाकर काम चलाते रहे. पाश्चात्य दृष्टि को सार्वभौमिक मानते हुए उसे आरोपित किया जाता रहा. संरचनात्मक बदलाव, विषय वस्तु, छात्रों पर शैक्षिक भार और अध्यापक-प्रशिक्षण आदि गंभीर विषयों को लेकर भी असमंजस ही बना रहा. आज पूर्व प्राथमिक (प्री प्राइमरी) से लेकर उच्च स्तर तक शिक्षा तक किस्म-किस्म के सरकारी और निजी क्षेत्र के पैमाने देश में चल रहे हैं. अध्यापकों की कमी से तदर्थवाद या एडहाकिज्म का बोलबाला होता गया है. साधन संपन्न लोग अपने बच्चों को विदेश पढ़ने को भेज रहे हैं और ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है.
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