Samastipur News: मोरवा : एक समय था जब गांवों की शामें लोकनाट्य, रामलीला, चैतावर और भजन मंडलियों से गुलजार रहती थीं. गांव का मैदान, मंदिर का चौक या स्कूल का आंगन सब नाट्य मंच बन जाते थे. लोग दूर-दूर से नाटक देखने आते थे. यह न सिर्फ मनोरंजन का साधन था, बल्कि सामाजिक संदेश देने और संस्कृति को संजोने का माध्यम भी था. एक लोटा पानी, रोटी, डाकू मानसिंह, चम्बल का डाकू, दानवीर कर्ण, अनन्त व्रत, तारका सुर संग्राम और एक बेटी गरीब की जैसे नाटकों में जीवंत अभिनय कर कलाकार न केवल अपनी प्रतिभा की लोहा मनवाते बल्कि नवयुवकों के लिये नजीर भी पेश करते थे. प्रेम-प्रसंग से लेकर सामाजिक बुराई और धार्मिक ग्रन्थों पर आधारित नाटकों का मंचन समाज के लिए काफी प्रेरणादायक होता था. महीनाें पहले से इसकी शुरुआत होती थी. चंदा उगाही से लेकर पात्रों का चयन और रिहर्सल करने और व्यवस्था से लेकर भीड़ को जुटाने की जिम्मेदारी सामाजिक सौहार्द से होती था. लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है. अब गांवों में नाटक का मंचन कहीं नहीं देखने को मिलता है. बताया जाता है कि मनोरंजन के आधुनिक साधन जैसे टीवी, मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया ने लोगों को घर में ही व्यस्त कर दिया है. अब लोगों को खुले मंच पर बैठ कर घंटों नाटक देखने के बजाय मोबाइल में ही सिमटे रहना ज्यादा पसंद करते हैं. युवा पीढ़ी पारंपरिक नाटकों में उतनी रुचि नहीं रखती. उन्हें फिल्मों, वेब सीरीज और डिजिटल कंटेंट ज्यादा आकर्षित करता है. गांवों में अब पहले जैसे कलाकार बनने की इच्छा युवाओं में नहीं देखने को मिल रहा है. सामाजिक सौहार्द का जीता-जागता उदाहरण अब समाज से विलुप्त हो गया है जो लोग अभिनय करते थे वे या तो बुजुर्ग हो गये हैं या शहरों की ओर पलायन कर गये हैं. लेकिन उनकी इच्छा नये युवाओं में कला को बरकरार रखने के प्रति है. लोगों का कहना है कि अब पंचायतों और समाज का सहयोग भी उतना नहीं मिलता. न ही बजट होता है और न ही आयोजन का उत्साह. लोगों के बदलती जीवनशैली और समय की कमी ने भी इस परंपरा को लोगों की जिंदगी से दूर कर दिया है. लोगों का कहना है कि नाटक हमारी संस्कृति का हिस्सा है. यह न केवल मनोरंजन करते थे, बल्कि शिक्षा, एकता और सामाजिक सुधार का भी काम करते थे. लोगों को प्रयास करना चाहिए कि इस परंपरा को फिर से जीवित करें. विद्यालयों में, गांव की समितियों में और पंचायत स्तर पर नाटकों को प्रोत्साहन दें.
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