संतोष कुमार, बेतला पलामू टाइगर रिजर्व के जंगलों में मौजूद हजारों कीमती सागवान, काला शीशम और खैर के वृक्षों का अस्तित्व मिट गया है. लातेहार जिले में जब नक्सलियों का वर्चस्व रहा, तब उनके संरक्षण में वन माफियाओं द्वारा बंदूक की नोक पर कीमती पेड़ सागवान, खैर और काला शीशम आदि पेड़ों की कटाई की गयी. इन इलाकों में तैनात वन विभाग के पदाधिकारी उस समय लाचार थे. आज नतीजा यह है कि जंगलों में ढूंढ़ने के बाद भी सागवान, खैर और काला शीशम आदि कीमती पेड़ दिखायी नहीं पड़ते हैं. जहां पर घने जंगल थे, वह आज मैदान में तब्दील हो गये हैं. अंग्रेजी हुकूमत के समय साल, बांस आदि का काफी व्यापार किया गया. उस समय पीटीआर का अस्तित्व नहीं था. इस इलाके का मुख्य धंधा लकड़ी और बांस का कारोबार था. छिपादोहर को मुख्य व्यापारिक केंद्र बनाया गया था. इसके लिए जंगलों के बीच से सड़कों के अलावा रेल लाइन बिछायी गयी थी. यहां के जंगल साल -सखुआ और बांस से भरे थे. साल की कटाई रेल की पटरी सहित अन्य कार्यों के लिए करायी गयी, तो बांस को कागज बनाने सहित अन्य कार्यों के उपयोग के लिए कटाई कर अन्य प्रदेशों में भेजा गया. 1920-25 में अंग्रेजों ने लगवाया था सागवान : सागवान झारखंड का अपना वृक्ष नहीं है. अंग्रेजों ने इसे बर्मा (म्यांमार) से मंगवाया था, ताकि इसकी खेती कॉमर्शियल तरीके से की जा सके. सागवान की लकड़ी हल्की, मजबूत और सुंदर होती है. अंग्रेज अपने जमाने में फर्नीचर बांग्ला सहित अन्य सामग्री का निर्माण सागवान की लकड़ी से ही करते थे. नेतरहाट का शैलै हाउस सहित अंग्रेजों के बनाये गये कॉटेज में सागवान की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया था. यहां की सागवान को अन्य जगहों पर भी भेजा जाता था. अंग्रेज के जमाने से ही सागवान की कटाई होती रही. अंग्रेजों ने पलामू टाइगर रिजर्व के कई इलाकों सहित बेतला नेशनल पार्क क्षेत्र में सागवान लगवाया. इनमें बेतला के रोड नंबर एक और पांच शामिल हैं. 1973 में जब पलामू टाइगर रिजर्व की स्थापना हो गयी, तब सागवान सहित अन्य पेड़ों की कटाई पर रोक लग गयी, लेकिन सागवान और खैर को काटने के लिए माफियाओं की नजर बनी रही. जब अधिकारी यहां से रिटायर होकर अथवा ट्रांसफर होकर जाते थे, तब यहां के सागवान से बने फर्नीचर पलंग सहित अन्य सामान को ले जाना ले जाते थे. धीरे-धीरे जब नक्सलियों का वर्चस्व बढ़ता गया, तब सागवान की कटाई उनके संरक्षण में होने लगी. नक्सलियों के भय के कारण वन विभाग के पदाधिकारी का आवागमन जंगली क्षेत्र में बंद हो गया. कत्था, पान व गुटखा बनाने में इस्तेमाल होती थी खैर की लकड़ी : नेतरहाट से बेतला और मंडल से लेकर भंडरिया तक उपयुक्त जलवायु और भूमि होने के कारण बड़ी संख्या में खैर के पेड़ लगे थे. कत्था, पान पराग, गुटखा आदि बनाने के साथ लोहा गलाने के लिए चारकोल के रूप में खैर की लकड़ी का उपयोग होता था. इसके कारण ही माफियाओं ने खैर के बोटा को बाहर भेजा. उसे उबाल कर कत्था बनाया जाता था. इसके बाद इसे यहां से बनारस, कानपुर सहित अन्य स्थानों पर भेज दिया जाता था. यह कारोबार काफी तेजी से फैल गया. पांच साल के अंदर सभी खेर के पेड़ काट लिये गये. तीन वन रक्षकों की कर दी गयी थी हत्या : 90 के दशक में नक्सलियों का तांडव रहा. 2014 तक उनका वर्चस्व रहा. 1992 -93 में किला क्षेत्र में तीन वन रक्षकों की हत्या अपराधियों ने कर दी थी. जगह-जगह बनाये गये वन विभाग के क्वार्टर में भी आग लगा दी गयी थी. बाद में तीन ट्रैक्टर गार्ड की हत्या भी कर दी गयी थी. इससे वन विभाग के पदाधिकारी और कर्मियों में खौफ था. क्या कहते हैं पर्यावरण विशेषज्ञ : पर्यावरण विशेषज्ञ डीएस श्रीवास्तव ने कहा कि पलामू टाइगर रिजर्व अद्भुत वन संपत्तियों से भरा था. समय के साथ जंगल घट रहे हैं. यह काफी चिंता की बात है. यदि अभी भी इसके संरक्षण पर नहीं ध्यान नहीं दिया गया, तो यह इलाका मैदान में तब्दील हो जायेगा.
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