लखनऊ : नाभिकुंड पियूष बस याकें, नाथ जिअत रावनु बल ताकें….विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण ले लिए हैं. नेपथ्य से नाना प्रकार के अपशकुन होने की आवाजें आने लगी हैं. ऐसा लग रहा है मानो जगत के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोल रहे हो. मूर्तियाँ रोने लगीं हों. श्री रघुनाथजी की भूमिका निभा रहे तापस कानों तक धनुष को खींचकर जैसे ही बाण छोड़ते हैं डॉ. अनूप (रावण) इस अदा के साथ गिरते है मानो वास्तव में रावण के गिरने से पृथ्वी हिल गई है. रामलीला की इस जीवंतता को देखकर खचाखच भरे लखनऊ के पीजीआई प्रेक्षागृह में मौजूद हर दर्शक रामायण के उसी काल खंड में पहुंच गया हो. मंच पर जो देखा वह कृतिम न होकर वास्तविक घटित हुआ हो. ओटीटी और बड़े पर्दे पर अपने अभिनय का लोहा मनवा चुके संदीप यादव की अवधारणा लेखन व निर्देशन का ही कमाल था कि कोई भी दर्शक यह भरोसा नहीं कर पा रहा था कि अभी जिस रामलीला को देखकर वे रोमाचिंत हो रहे थे, उसमें अभिनय करने वाले पेशेवर कलाकार नहीं थे. लोगों का इलाज कर जिंदगी बचाने वाले डॉक्टर्स हैं.
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