इ सी 29 फरवरी को कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ. अमेरिका की तरफ से वार्ताकार जाल्मी खालिलजाद और तालिबान की तरफ से उसके वार्ताकार मुल्ला बारादार ने इस समझाैते पर हस्ताक्षर किये. इस दौरान कतर के अलावा पाकिस्तान, तुर्की, भारत, इंडोनेशिया, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के प्रतिनिधि मौजूद थे.
इस वार्ता में भारत की तरफ से कतर में भारतीय राजदूत पी कुमारम मौजूद रहे. ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी भारतीय अधिकारी ने तालिबान की मौजूदगी में किसी कार्यक्रम में हिस्सा लिया है. हालांकि, इस समझौते पर हस्ताक्षर की प्रक्रिया में अफगान सरकार की तरफ से कोई भी प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ. यह समझौता माइक पॉम्पियो की देखरेख में हुआ और तालिबान को अलकायदा से संबंध समाप्त करने की प्रतिबद्धता याद दिलायी गयी.
इस समझौते के अनुसार, अफगानिस्तान में 18 सालों से तैनात अमेरिकी और नाटो व सहयोगी देशों की सेना 14 महीने के भीतर वापस बुला ली जायेगी. अफगानिस्तान में अभी तकरीबन चौदह हजार अमेरिकी सैनिक और नाटो व सहयोगी देशों के लगभग सत्रह हजार सैनिक तैनात हैं. इस समझौते के तहत, 135 दिनों के भीतर अमेरिका अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या घटाकर 8,600 कर देगा और 14 महीने के भीतर बाकी के सैनिकों की वापसी समेत दूसरी प्रतिबद्धताएं पूरी करनी होगी.
बदले में तालिबान सुनिश्चित करेगा कि अमेरिका और उसके सहयोगियों के खिलाफ 9/11 जैसा कोई हमला न हो. दोनों पक्षों द्वारा जारी संयुक्त बयान में यह भी कहा गया है कि तालिबान से जुड़े लोगों को 29 मई तक प्रतिबंध सूची से हटाने के लिए अफगान सरकार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में शामिल होगी. इस समझौते में अफगान सरकार की जेलों में बंद पांच हजार तालिबानी कैदियों और तालिबान के कब्जे में रखे गये एक हजार सरकारी सुरक्षा बलोंं की रिहाई की बात भी कही गयी है.
भारत की सधी प्रतिक्रिया : तालिबान-अमेरिका की इस डील पर भारत ने बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त की है. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा है कि अफगानिस्तान में शांति, सुरक्षा और स्थिरता लाने की हर कोशिश का समर्थन करना भारत की नीति रही है. भारत की नीति हर उस अवसर का स्वागत करने की रही है, जो अफगानिस्तान में हिंसा और आतंकवाद को समाप्त कर शांति, सुरक्षा व स्थिरता ला सके और अफगानिस्तान के नेतृत्व में उन्हीं के नियंत्रण वाली प्रक्रिया के जरिये स्थायी राजनीतिक समाधान लाये. विदेश मंत्रालय के इस बयान में न तो शांति समझौते का स्वागत किया गया और न ही तालिबान का सीधे तौर पर जिक्र किया गया.
समझौते पर संशय : अमेरिका-तालिबान समझौते में तालिबान और अफगानिस्तान सरकार की वार्ता की भी शर्त तय की गयी है, लेकिन इसे लेकर संशय बना हुआ है. तालिबान हमेशा से अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार को मान्यता देने से इनकार करता रहा है. अगर अफगानिस्तान की सरकार के साथ उसकी वार्ता होती है, तब भी इस बात को लेकर संदेह बना रहेगा कि वह वर्तमान संविधान और लोकतंत्र का पालन करेगा, क्योंकि तालिबान हमेशा से शरिया कानून की वकालत करता रहा है. दोहा समझौते की शर्त के मुताबिक तालिबान, अफगान सरकार और विभिन्न समूहों के बीच अब बातचीत शुरू होनी है.
अब तक तालिबान अमेरिका के साथ किसी भी समझौते में सीधे शामिल होने से इनकार करता रहा है. वह अफगान सरकार को अमेरिकी कठपुतली भी कहता आया है. चूंकि, इस बातचीत में अफगानिस्तान शामिल नहीं रहा है, ऐसे में जब तालिबान व विभिन्न समूहों के बीच आपसी बातचीत का दौर शुरू होगा, तो अलग-अलग समूहों की राय अलग-अलग हो सकती है. ऐसी स्थिति में सरकार के अलग-थलग पड़ने की संभावना भी है.
ट्रंप का चुनावी दांव ही ज्यादा लगता है : हाल में दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते के बाद अफगानिस्तान में जारी दशकों पुरानी अशांति एक और अनिश्चितता के दौर में प्रवेश कर गयी. इस समझौते को भले ही ‘शांति समझौते’ के रूप में प्रचारित किया जा रहा हो, लेकिन वास्तव में यह अमेरिकी और नाटो सैनिकों की वापसी से जुड़ा समझौता है. साल 2016 के चुनाव में ट्रंप ने अपने प्रचार में मध्य-पूर्व क्षेत्र में वर्षों से जारी युद्ध को खत्म करने का वादा किया था. इस साल के आखिर में प्रस्तावित चुनाव से पहले राष्ट्रपति ट्रंप ने यह दांव चला है.
तालिबान ने अफगान सैनिकों को बनाया निशाना : शांति वार्ता के कुछ घंटों के बाद ही तालिबान ने अफगान सैनिकों को निशाना बनाया. इस हमले में अफगान सेना और पुलिस के 20 जवानों की मौत हो गयी. इससे कुछ घंटे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि उनकी बागियों के राजनीतिक प्रमुख से ‘बहुत अच्छी’ बातचीत हुई है. प्रांतीय काउंसिल के सदस्य सैफुल्लाह अमीरी के अनुसार, तालिबान के लड़ाकों ने कुंदुज जिले के इमाम साहिब में सेना की तीन चौकियों पर हमला किया. विद्रोहियों ने इससे पहले उरूजगन में भी पुलिस पर हमला किया था.
अमेरिका ने शुरू की एयरस्ट्राइक, क्या टूट जायेगा समझौता : तालिबान द्वारा 20 अफगान सैनिकों के मारे जाने और लगातार किये जा रहे हमले के बाद अब अमेरिका ने एयरस्ट्राइक शुरू कर दी है. तालिबान के एक बड़े अड्डे हेलमंड प्रांत पर अमेरिका ने जवाबी हमला किया है. इससे पहले अफगानिस्तान ने तालिबान विद्रोहियों को रिहा करने से इनकार कर दिया था, जिससे मामला बिगड़ गया. मंगलवार देर शाम को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने तालिबान के डिप्टी लीडर मुल्ला अब्दुल गनी से फोन पर बात की थी और 10 मार्च से शुरू हो रही प्रक्रिया का हिस्सा बनने की बात कही थी.
अफगान सरकार के लिए बढ़ सकती हैं मुश्किलें : पूर्व की शर्तों के मुताबिक पहले तालिबान को अफगान सरकार के साथ वार्ता करनी थी, लेकिन 2018 में अमेरिका ने इस शर्त से छूट दे दी. हालांकि, अफगान सरकार हमेशा से तालिबान को खारिज करती आयी है. अमेरिका ने तालिबान के साथ सीधे बातचीत की. इस समझौते के बाद उम्मीद की जा रही है कि चरमपंथी धड़ों की अफगान राजनेताओं, विशेषकर सरकार में शामिल लोगों के साथ वार्ता शुरू हो सकेगी.
विशेषज्ञों का मानना है कि यह बहुत चुनौतीपूर्ण होने जा रहा है क्योंकि तालिबान जहां ‘इस्लामिक अमीरात’ के एजेंडे पर टिका है, वहीं अफगान सरकार आधुनिक लोकतंत्र की पक्षधर है. इसमें नागरिक अधिकारों, महिला अधिकारों और अन्य लोकतांत्रिक मूल्यों पर दोनों पक्षों में सहमति बना पाना आसान नहीं होगा. दूसरी बात, वार्ता से पहले तालिबान चाहता है कि उसके 5000 लड़ाकों को रिहा किया जाये. इसके अलावा राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को लेकर राजनीतिक गतिरोध बना हुआ है. अशरफ गनी के खिलाफ अब्दुल्ला अब्दुल्ला मुखर हैं. अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में वार्ता सुचारु रूप से हो पायेगी, यह चुनौतीपूर्ण होने जा रहा है.
अमेरिका के निकलने के बाद अफगानिस्तान के हालात : आमतौर पर अफगानिस्तानी नागरिकों का मानना है कि क्षेत्र में शांति बहाली हो और हिंसा में कमी आये. अफगान वार्ता के बाद अब अमेरिका की तैयारी है कि अगर तालिबान अपने वादे को पूरा करने में प्रतिबद्धता दिखाता है, तो वह अगले 14 महीने में अपने सैनिकों को हटा लेगा. हालांकि, वार्ता असफल रहने पर अमेरिका का क्या रवैया होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है. लेकिन, इस बात की आशंका है िक अगर अमेरिका अपने सैनिकों को हटा लेता है, तो दोबारा तालिबान युद्ध छेड़ सकता है. ऐसी स्थिति में अफगान सुरक्षाबलों के लिए समस्या और बढ़ जायेगी. तालिबान के रवैये से स्पष्ट है कि वह किसी भी सूरत में रियायत नहीं देगा. वह वैश्विक स्तर पर वैधता और मान्यता चाहता है और इस मौके को वह बड़ी जीत के रूप में देख रहा है.
भारत के नजरिये से चिंता : माना जा रहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के लौटने के बाद वहां तालिबान ताकतवर हो सकता है. इसे लेकर भारत चिंतित है. भारत की सबसे बड़ी चिंता देश की सुरक्षा और अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार की स्थिरता को लेकर है. ऐसी संभावना भी है कि समझौते के बाद पाकिस्तान का अफगानिस्तान में दबदबा बढ़ सकता है. तालिबान की ताकत बढ़ने से क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए खतरा और बढ़ सकता है. शांति प्रक्रिया के बाद अगर तालिबान फिर से शक्तिशाली होता है, तो अफगानिस्तान के फिर से आतंकवाद का ठिकाना बन जाने की बहुत ज्यादा संभावना है.
वहीं कश्मीर को अस्थिर करने के लिए पाकिस्तान तालिबान पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल भी कर सकता है. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक बयान में कहा था कि उनकी जमीन पर बीस हजार से तीस हजार आतंकवादी मौजूद हैं. इसका अर्थ हुआ कि भविष्य में भारत के खिलाफ होनेवाले किसी भी छद्म युद्ध में शामिल इन आतंकियों काे अफगानिस्तान में शरण मिलना आसान हो जायेगा. अगर ऐसा हुआ तो पाकिस्तानी सेना को अफगानिस्तान में रणनीतिक बढ़त हासिल होगी और वहां भारत का प्रभाव कम हो जायेगा.
विश्लेषकों को इस बात की भी चिंता है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट भी इसे अपना गढ़ बना सकते हैं. अमेरिका-तालिबान के बीच हुए शांति समझौते में अफगानिस्तान सरकार को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है, जिससे भारत खुद को अलग-थलग महसूस कर रहा है. भारत हमेशा ही अफगान सरकार की नीति और अफगान नियंत्रित शांति प्रक्रिया का समर्थन और इसमें पाकिस्तान की भूमिका को खारिज करता रहा है.
तालिबान से भारत की दूरी : तालिबान का उभार भारत के लिए चिंताजनक हो सकता है. हाल में संपन्न समझौते के बाद मुल्ला बारादार ने शांति प्रक्रिया में शामिल देशों का जिक्र करते समय भारत का नाम नहीं लिया, लेकिन पाकिस्तान को समर्थन और सहयोग के लिए विशेष तौर पर धन्यवाद ज्ञापित किया. तालिबान के साथ भारत का अनुभव कड़वा रहा है, खासकर 1999 में आइसी-814 विमान अपहरण के मामले में बुरी यादें जुड़ी हुई हैं. साल 1990 में नॉर्दर्न अलायंस फोर्सेज को भारत द्वारा सहयोग दिये जाने से तालिबान भारत को दुश्मन के रूप में देखता रहा है.
साल 1996-2001 के बीच रहे तालिबान शासन को भारत ने कभी आधिकारिक और राजनयिक तौर पर मान्यता नहीं दी. हाल के वर्षों में अमेरिका और तालिबान के बीच जारी वार्ता के दौरान भारत सभी पक्षों के संपर्क में रहा, लेकिन सीधे तौर पर बातचीत में शामिल नहीं रहा. नवंबर, 2017 में माॅस्को में हुई वार्ता के दौरान भारत की तरफ से अनाधिकारिक तौर पर अफगानिस्तान में प्रतिनिधि रहे अमर सिन्हा और पाकिस्तान में उच्चायुक्त रहे टीसीए राघवन को भेजा गया था.
बीते साल के मुकाबले हिंसा में कमी : यह बात गौर करनेवाली है कि शांति समझौते से पहले अफगानिस्तान में होनेवाली हिंसा में कमी आयी है. क्योंकि पिछले वर्ष इस देश में काफी हिंसा हुई थी. संयुक्त राष्ट्र सहयोग मिशन के मुताबिक, जनवरी से सितंबर के बीच यहां ढाई हजार से अधिक नागरिक मारे गये थे और साढ़े पांच हजार से अधिक घायल हुए थे. अकेले जुलाई में ही मरने व घायल होनेवालों की तादाद डेढ-दो हजार थी.
जबकि अप्रैल में आयी इसकी एक रिपोर्ट के मुताबिक, सात सौ से अधिक नागरिक अमेरिकी और अफगानी सुरक्षाबलों द्वारा मारे गये थे, जबकि पांच सौ के करीब लोगों की मौत चरमपंथियों के हाथों हुई थी. इतना ही नहीं, चुनाव रोकने की मंशा से सितंबर में भी तालिबान ने बड़े पैमान पर हिंसा की थी. अमेरिकी वायु सेना द्वारा जारी आंकड़े के अनुसार, पिछले वर्ष अमेरिका ने कुल 7,423 बार बमबारी की थी, जो 2018 की तुलना में कहीं अधिक है.
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