बड़कागांव. विलुप्त होते वाद्य यंत्र मांदर को बड़कागांव के कुछ समुदायों ने जीवित रखा है, लेकिन आधुनिकीकरण के कारण मांदर छोड़कर डीजे साउंड की ओर लोगों का झुकाव होने लगा है. मांदर को झारखंड के सबसे प्रमुख वाद्य यंत्रों में माना जाता है, जिसे झारखंड की सांस्कृतिक पहचान कहा जाता है. धीरे-धीरे यह अपनी पहचान खोता जा रहा है. लेकिन बड़कागांव में भुइयां जाति, कुर्मी, मांझी, गंझू, घांसी जाति के लोग इसे जीवित रखे हुए हैं. यह अक्सर सरहुल पर्व, करमा जितिया व सोहराय पर्व के समय झूमर खेलते वक्त दिखाई देता है. मांदर की थाप व लोकगीत के साथ लोग थिरकते नजर आते हैं, जिसे देखने वाले लोगों का मन भी मचल उठता है. कोई भी सामाजिक या सांस्कृतिक समारोह मांदर के बिना अधूरा माना जाता है. ढोल-नगाड़े, शहनाई सब कुछ हो, पर मांदर की थाप न हो तो समारोह में रस नहीं रह जाता. हर कार्यक्रम मांदर के बिना अधूरा रह जाता है. लेकिन अब मांदर के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है. बड़कागांव प्रखंड के ठाकुर मोहल्ला निवासी विजय भुइयां व अंगों निवासी दयाली महतो, भोला महतो ने बताया कि अब बाजार में मांदर की मांग काफी कम हो गयी है. पहले के समय में रथ यात्रा, मंडा पर्व एवं शादी-विवाह के अवसर पर मांदर की काफी बिक्री होती थी, लेकिन अब इसकी मांग घट गयी है.
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