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14 तारीख को पुलवामा में आतंकी घटना हुई, जिसमें हमारे देश के 40 जवान शहीद हो गये. पूरे देश में इस घटना के बाद दु:ख और गुस्से का माहौल था (है). उसके ठीक 13 दिनों के बाद भारतीय एयरफोर्स ने घटना के जिम्मेवार जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादियों को पाकिस्तानी इलाके बालाकोट में सर्जिकल स्ट्राइक कर ढेर कर दिया. इसके बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का माहौल है. पाकिस्तान सरकार पूरे मसले पर बैकफुट पर नजर आ रही है. जो पाकिस्तान पूरी दुनिया में आतंकवादियों की शरणस्थली है, वो शांति और बातचीत के द्वारा मसले के समाधान की बात कर रहा है.

पुलवामा की घटना कोई पहली बार नहीं हुई है. वर्षों से इस तरह की नापाक हरकत पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित या समर्थित आतंकवादियों द्वारा की जाती रही है. हर बार तनाव चरम पर पहुंचने के बाद चीजें सामान्य हो जाती रही हैं. भारत की छवि सॉफ्ट स्टेट की तरह बन गयी थी, लेकिन 2016 में भारत द्वारा उरी की घटना के बाद पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक कर आतंकवादियों पर कार्रवाई कर अपनी छवि बदलने की कोशिश की गयी.
इस परिदृश्य को जब मैं देखता हूं, तो आम जीवन की कुछ और चीजें मेरे सामने से गुजरती हैं. आप कभी भी फुटबॉल, हॉकी के मैच को ध्यान से देखिए. अमूमन ऐसा होता है कि जब भी कोई टीम मैच में लीड करने लगती है और खेल खत्म होने में कम समय बचा होता है, तो लीड लेने वाली टीम डिफेंस में जाकर ये कोशिश करती है कि किसी भी तरीके से बचे समय को खत्म किया जाये. उस समय जो टीम पिछड़ रही होती है, उसके सभी खिलाड़ी (डिफेंस या पीछे खेलने वाले सहित) आगे आक्रमण में लग जाते हैं और ऐसा बहुत बार होता है कि जीतने वाली टीम बहुत ज्यादा डिफेंस खेलते हुए गोल खाकर मैच भी गंवा देती है.
मुझे बचपन की एक घटना याद आ रही है. बमुश्किल मेरी उम्र 12-13 साल होगी. स्कूल की क्रिकेट टीम के सेलेक्शन का मैच चल रहा था. सीनियर और जूनियर टीम का मैच चल रहा था. मैं मैदान में जूनियर टीम की तरफ से सलामी बल्लेबाज के रूप में गया. सामने कम से कम पांच-छह साल बड़ा लड़का तेज गेंदबाजी कर रहा था. एक गेंद मेरे कमर के आस-पास लगी. मैं दर्द से बिलबिला उठा. मेरे मन में विचार आया कि ऐसे ही अगर मैं बचा (डिफेंसिव) कर खेलता रहा, तो शायद मुझे और चोट लगेगी या बहुत जल्द आउट हो जाऊंगा. मैंने मजबूती से निर्णय लिया कि मैं भले ही आउट हो जाऊं, लेकिन सामने वाले गेंदबाज की धुनाई जरूर करूंगा और मैंने आक्रामक अंदाज में बल्लेबाजी शुरू कर दी. कुछ देर में मैंने देखा कि जो गेंदबाज कुछ समय पहले तक काफी असरदार और खौफनाक लग रहा था, वो अपने गेंद की पिटाई के डर से लेंथ और लाइन गड़बड़ा बैठा.
जीवन का मैदान हो या खेल का मैदान. जीतने का सूत्र एक ही है-ऑफेंस इज द बेस्ट वे ऑफ डिफेंस मतलब आप अपने को तभी डिफेंड कर पायेंगे, जब आप आक्रामक होंगे. यहां ये ध्यान रहे कि आक्रामक होने का मतलब पागलपन नहीं है. जोश बनाये रखें, लेकिन होश के साथ. ज्यादा बेहतर शब्द होगा कंट्रोल्ड अग्रेशन.
Prabhat Khabar Digital Desk
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