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विदेश यात्राओं का मूल्यांकन

II योगेंद्र यादव II संयोजक, स्वराज अभियान [email protected] जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में कई विदेश यात्राएं की, तो कई आलोचकों ने इसका मखौल उड़ाया था. लेकिन, तब मैं उस आलोचना से सहमत नहीं था. प्रधानमंत्री का कर्तव्य है अपने देश में खुशहाली के साथ-साथ दुनियाभर में देश की प्रतिष्ठा बढ़ाना, […]

II योगेंद्र यादव II
संयोजक, स्वराज अभियान
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में कई विदेश यात्राएं की, तो कई आलोचकों ने इसका मखौल उड़ाया था. लेकिन, तब मैं उस आलोचना से सहमत नहीं था. प्रधानमंत्री का कर्तव्य है अपने देश में खुशहाली के साथ-साथ दुनियाभर में देश की प्रतिष्ठा बढ़ाना, अंतरराष्ट्रीय मंच पर देश की कूटनीतिक और सामरिक क्षमता का विस्तार करना और देश के बाहर दोस्ती का दायरा बढ़ाना. इसलिए तब मैंने कहा था कि विदेश दौरों की आलोचना करने की बजाय कुछ समय बाद इनके परिणाम का मूल्यांकन करना चाहिए.
अब मूल्यांकन का समय आ गया है. मोदी सरकार के लगभग चार वर्ष पूरे होने पर यह पूछना बनता है कि क्या इस दौरान अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का कद ऊंचा हुआ? कद बढ़ने की तीन कसौटियां हो सकती हैं- इज्जत, प्यार और डर. पहला इज्जत या रुतबा, यानी क्या नैतिक और सैद्धांतिक ताकत के रूप में भारत की साख पहले से ज्यादा मजबूत हुई है? दूसरा प्यार या रसूख, यानी क्या पड़ोस या दूर के देशों से स्नेह का रिश्ता गहरा हुआ है? और तीसरा डर या रौब, यानी क्या भारत की ताकत का लोहा पहले से ज्यादा माना जा रहा है? एक महाशक्ति होने की पहचान यह है कि दुनिया में हमारे देश की इज्जत की जाये, हमारे भरोसेमंद दोस्त हों और जरूरत पड़ने पर हमारी शक्ति को भी स्वीकार किया जाये.
मोदी सरकार की विदेश नीति को इस कसौटी पर कसने पर निराशा हाथ लगेगी. अगर अपने पड़ोसियों के साथ संबंध को आधार बनाया जाये, तो यह कहना पड़ेगा कि पिछले चार साल में अंतरराष्ट्रीय फलक पर ना तो हमारा रुतबा बढ़ा है, ना हमारा रसूख बना है और न ही हमारा रौब ही बन पाया है. यानी की इज्जत भी गयी और काम भी नहीं बना.
आज से साठ-सत्तर साल पहले भारत आर्थिक और सामरिक रूप से कमजोर था. फिर भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर नेहरू की नैतिक आभा के चलते भारत का रुतबा था. आज हमारी आर्थिक और सामरिक क्षमता पहले से बहुत ज्यादा है, लेकिन आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की आवाज किसी सिद्धांत या आदर्श के साथ खड़ी दिखायी नहीं देती है. इसलिए मालदीव में जब लोकतंत्र की हत्या होती है, तब भारत सरकार मूकदर्शक बनने को मजबूर होती है. म्यांमार में जब वहां की सरकार अल्पसंख्यक रोहिंग्या के साथ अत्याचार करती है, तो सारा विश्व बोलता है. लेकिन, भारत के प्रधानमंत्री म्यांमार जाकर भी इस सवाल पर चुप्पी बनाये रखते हैं. अब भारत अगर श्रीलंका के तमिल अल्पसंख्यकों की, नेपाल के मधेशियों या पाकिस्तान के हिंदू अल्पसंख्यकों या बलूचिस्तान की बात करता है, तो उसमें कोई नैतिक आभा नहीं रहती.
दोस्ती और रिश्तों की बात करें, तो पिछले चार साल में भारत के संबंध अपने पड़ोसियों से पहले से बिगड़े हैं. पाकिस्तान और चीन से तो पहले ही से तनातनी थी, इन से संबंध सुधारने की आधी-अधूरी कोशिशें नाकामयाब हुई हैं. नवाज शरीफ के घर बिन बुलाये मेहमान की तरह जाने से भारत को कुछ हासिल नहीं हुआ, उल्टे पाकिस्तान सरकार ने कुछ लाख रुपये का बिल जरूर थमा दिया है. उधर चीन के नेता शी जिनपिंग की गर्मजोश मेजबानी भी काम नहीं आयी.
दोस्ती की असली परीक्षा नेपाल में थी, लेकिन हमारी सरकार इस परीक्षा में भी असफल रही. मधेशियों के सवाल पर भारत की चिंता जायज थी, लेकिन बॉर्डर पर नाकाबंदी और कूटनीतिक धौंसपट्टी का दांव उलटा पड़ गया. नतीजा यह है कि भारत की दखलअंदाजी नेपाल में मुख्य चुनावी मुद्दा बन गया और भारत-विरोधी ओली अब नेपाल के प्रधानमंत्री बन गये हैं. बांग्लादेश में आम तौर पर भारत समर्थक मानी जानेवाली अवामी लीग सरकार से भी गाढ़े संबंध नहीं चल रहे हैं.
हैरानी की बात यह है कि शक्ति या रौब के सवाल पर भी चार साल का रिकॉर्ड हल्का ही है. इस दौरान जल-थल या वायु सेना की सामरिक क्षमता में एक भी उल्लेखनीय इजाफा नहीं हुआ. सर्जिकल स्ट्राइक का खूब प्रचार तो हुआ, लेकिन उसके फलस्वरूप पाकिस्तान से होनेवाले हमले कम नहीं हुए, उल्टे हमारे शहीदों की संख्या पहले से बढ़ गयी.
डोकलाम में चीनी सेना से लोहा लेने का चाहे जितना प्रचार कर लें, हकीकत यह है कि चीन पहले से भी बेहतर तैयारी के साथ वहां काबिज हो रहा है. चीन अगले सौ साल की तैयारी के साथ भारत को घेर रहा है. पाकिस्तान के बाद अब नेपाल और मालदीव को अपने प्रभावक्षेत्र में शामिल कर रहा है. और हमारी सरकार या तो बेखबर है या फिर बेअसर है. ये सब किसी महाशक्ति वाले लक्षण नहीं हैं.
ऐसा क्यों हुआ? बढ़ती आर्थिक ताकत के बावजूद राष्ट्रीय हैसियत ना बढ़ा सकने के इन चार सालों का अनुभव यही सिखाता है कि विदेश नीति बहुत गंभीरता मांगती है.
विदेश नीति में नीति चाहिए, दृष्टि चाहिए, समझ चाहिए, सिर्फ प्रचार और टीवी स्टूडियो की तू-तड़ाक नहीं चाहिए. अपने ही विदेश मंत्री के पर कतर कर उसे सिर्फ वीजा मंत्री बना देने से अंदरूनी प्रतिद्वंद्वी तो निपट जायेगा, लेकिन बाहरी ताकतें मजबूत होंगी. विदेशी नेताओं के साथ सेल्फी और दुनियाभर में एनआरआई भीड़ जुटाकर तालियां पिटवाने से नेता की छाती तो चौड़ी हो सकती है, देश का कद नहीं बढ़ता.
Prabhat Khabar Digital Desk
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