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बैंक विनियामकों की विफलता

II आरके पटनायक II पूर्व सेंट्रल बैंकर II जगदीश रतनानी II वरिष्ठ पत्रकार [email protected] एक सामान्य भारतीय आज एक झूठी उम्मीद का शिकार बना बैठा है. एक तरफ अपनी कई आर्थिक मजबूतियों के बूते भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक चमकीला सितारा बनकर उभरता बताया जाता है. तो वहीं दूसरी ओर, देश के दूसरे सबसे […]

II आरके पटनायक II
पूर्व सेंट्रल बैंकर

II जगदीश रतनानी II
वरिष्ठ पत्रकार
एक सामान्य भारतीय आज एक झूठी उम्मीद का शिकार बना बैठा है. एक तरफ अपनी कई आर्थिक मजबूतियों के बूते भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक चमकीला सितारा बनकर उभरता बताया जाता है. तो वहीं दूसरी ओर, देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक, पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी), से जनता की गाढ़ी कमाई के 10,000 करोड़ रुपये की लूट उसे एक डरावने यथार्थ का भान भी करा देती है.
ऐसे में यह सवाल बार-बार पूछा जाना महत्वपूर्ण है कि क्या इस धोखाधड़ी में एक अदना उपप्रबंधक ही संलिप्त है अथवा इस बैंक का शीर्ष प्रबंधन भी है? क्या इस बैंक के निदेशक मंडल को जिम्मेदार माना जाना चाहिए? और क्या वित्त मंत्रालय तथा भारत सरकार को कोई दोष नहीं लगता? इन सारे सवालों के जवाब निश्चित रूप से हां में हैं. फिर रिजर्व बैंक (आरबीआई) नामक उस सर्वोपरि संस्था के विषय में क्या कहा जाये, जो सरकार के बैंकर के रूप में दूसरे सभी बैंकों की गड़बड़ियां रोकने के लिए उत्तरदायी है?
यहां यह देखना अत्यंत प्रासंगिक होगा कि अपनी ही भूमिकाओं तथा कर्तव्यों के लिए आरबीआई का बयान क्या कहता है, ‘बैंकिंग प्रणाली की सुरक्षा तथा सबलता सुनिश्चित करने के साथ ही वित्तीय स्थिरता एवं इस व्यवस्था में सार्वजनिक विश्वास कायम रखने में हमें अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है.’
इसका यह भी कहना है कि इसके विनियमों का उद्देश्य ‘जमाकर्ताओं के हितों का संरक्षण, बैंकिंग कामकाज का सुचारु विकास एवं संचालन तथा बैंकिंग प्रणाली और वित्तीय स्थिरता के समग्र स्वास्थ्य का पोषण है.’
अब आरबीआई की इन उक्तियों की रोशनी में उसकी उन दो प्रेस विज्ञप्तियों को देखें, जो पीएनबी की उक्त धोखाधड़ी के खुलासे के पश्चात सामने आयीं. 16 फरवरी, 2018 की पहली विज्ञप्ति में कहा गया कि पीएनबी के साथ यह धोखाधड़ी ‘परिचालनीय जोखिम का मामला है, जो एक अथवा अधिक कर्मियों के आपराधिक व्यवहार तथा आंतरिक नियंत्रण की विफलता से पैदा हुआ है.’
इसकी अगली ही पंक्ति में यह कहता है, ‘आरबीआई ने पीएनबी की नियंत्रण प्रणाली का एक पर्यवेक्षणीय आकलन आरंभ कर दिया है और यह समुचित पर्यवेक्षणीय कदम उठायेगा.’ जिसे भारतीय बैंकिंग इतिहास की सबसे बड़ी धोखाधड़ी बताया जा रहा है, उसके विषय में भारतीय बैंकों के इस नियामक संस्थान द्वारा एक ऐसा सामान्य किस्म का बयान जारी करते हुए बच निकलना स्वयं उस धोखाधड़ी से कुछ भी कम गंभीर नहीं है.
यहां यह भी याद रखा जाना चाहिए कि पीएनबी के निदेशक मंडल में आरबीआई का एक प्रतिनिधि भी बैठता है. किसी भी स्थिति में, आरबीआई के पर्यवेक्षण तंत्र को पूरी बैंकिंग प्रणाली में इस तरह की विसंगति की पहचान करने में समर्थ होना ही चाहिए था. यदि वह इतने बड़े लेनदेन के बार-बार होते जाने से भी सजग नहीं हो सका, तो यह माना जा सकता है कि इसका पूरा पर्यवेक्षण तंत्र सिर्फ सतही रहा है.
बीते 20 फरवरी को जारी अपने दूसरे प्रेस बयान में आरबीआई के अनुसार, इसने ‘अगस्त 2016 के बाद कम से कम तीन अवसरों पर बैंकों को इन (स्विफ्ट प्रणाली के संभावित दुरुपयोग की) जोखिमों के प्रति गोपनीय रूप से आगाह किया है.’
आरबीआई ने खुद ही यह स्वीकार किया है कि बैंकों द्वारा ऐसे अनुदेशों के अनुपालन अलग-अलग सीमा तक ही किये गये हैं, जिसका निहितार्थ यह है कि उनके द्वारा इन अनुदेशों की अनदेखी और उल्लंघन तक किये जाते रहे हैं. तो फिर इस नियामक ने इनके अनुपालन हेतु कौन-से अगले तार्किक कदम उठाये, इस पर यह सुविधापूर्वक मौन है. फिर ऐसे मामूली अनुपालनों हेतु ‘गोपनीय रूप से आगाह’ करने का अर्थ क्या केवल अपनी चमड़ी बचाने की जुगत करना नहीं है, ताकि बाद में यह कहते हुए बच निकला जा सके कि ‘हमने तो कहा था?’
यह अपने दायित्वों की आपराधिक अनदेखी है और यदि जनता के पैसों से ऐसे खिलवाड़ बंद किये जाने का संदेश संजीदगी के साथ दिया जाना है, तो आरबीआई में इसके लिए जिम्मेदार लोगों की छुट्टी की ही जानी चाहिए.
यदि रिजर्व बैंक की कार्यप्रणाली यही है, उसके विनियमों की ऐसी ही गुणवत्ता है, तो फिर लोगों द्वारा यह निष्कर्ष निकालने में क्या हैरत कि ऐसे विनियमन से ईश्वर हमारी रक्षा करे. अगला अहम पहलू वित्तीय पर्यवेक्षण बोर्ड (बीएफएस) का है, जिसकी स्थापना नवंबर 1994 में इस उद्देश्य से की गयी थी कि समूची वित्तीय प्रणाली पर एक एकीकृत पर्यवेक्षक की भूमिका का निर्वहन हो. यह पूरी तरह अपेक्षित था कि इसके द्वारा भी एलओयू जनित इन लेनदेन की समीक्षा के लिए कुछ किया जाता, पर इसने ऐसा कुछ नहीं किया.पूरी वित्तीय कार्यप्रणाली विश्वसनीयता आधारित होती है, जिससे भरोसे का निर्माण होता है.
बैंकों के निचले सिरे से लेकर उसके शीर्ष तथा आरबीआई के उच्चतम पायदान से लेकर सरकार तक की विफलताओं की पूरी शृंखला में आरबीआई की विनियामक विफलता एक अहम कड़ी है. प्राथमिक शालाओं में यह सिखाया जाता रहा है कि वक्त पर दिया गया एक टांका बाद के नौ टांके बचाता है. आरबीआई के शीर्ष नेतृत्व को यह सबक फिर से सीखने की जरूरत है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
Prabhat Khabar Digital Desk
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