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क्या 2019 में त्रिशंकु होगी लोकसभा

II आकार पटेल II कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया [email protected] एक मुहावरा है- ‘त्रिशंकु संसद’, जिससे स्टॉक मार्केट भयभीत हो जाता है. इसके पीछे वही सोच है कि अर्थव्यवस्था को एक मजबूत और निर्णायक नेतृत्व की जरूरत होती है और इसलिए जब बिना बहुमत वाले दल की सरकार बनती है, वह अर्थव्यवस्था को गति देने […]

II आकार पटेल II
कार्यकारी निदेशक,
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
एक मुहावरा है- ‘त्रिशंकु संसद’, जिससे स्टॉक मार्केट भयभीत हो जाता है. इसके पीछे वही सोच है कि अर्थव्यवस्था को एक मजबूत और निर्णायक नेतृत्व की जरूरत होती है और इसलिए जब बिना बहुमत वाले दल की सरकार बनती है, वह अर्थव्यवस्था को गति देने में असफल रहती है.
अर्थव्यवस्था को दिशा देने की नाकामी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के कम वृद्धि से जुड़ी है. संसद के भीतर सांसदों के कई निहित स्वार्थ हैं और सरकार जो कुछ भी कर सकती है या नहीं कर सकती है, उस पर अक्सर क्षेत्रीय दल रोक लगा देते हैं. एक बहुमत वाली सरकार के पक्ष और गठबंधन सरकार के विपक्ष में तर्क देने का यही आधार है.
हालांकि, हाल के वर्षों के प्रमाण इस तर्क का समर्थन नहीं करते. यूपीए की गठबंधन सरकार (2005-2009) के पांच वर्षों में जीडीपी वृद्धि दर 8.5 प्रतिशत रही, जो भारत के इतिहास में किसी भी पांच वर्ष की सर्वाधिक वृद्धि दर है.
यह वृद्धि दर कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार, जिसकी संसद में महज 145 सीट थी, द्वारा प्राप्त की गयी थी. सूचना का कानून अधिकार सहित कुछ बेहतरीन कानून हमारे देश में इसी अवधि में बने थे.
जब यही गठबंधन अगले चुनाव में सत्ता में आया, तो कांग्रेस की सीटें बढ़कर 200 पहुंच गयीं. आदर्श रूप में स्वतंत्र निर्णय लेनेवाली यह एक निर्णायक सरकार होनी चाहिए थी. और संभवत: यही मामला था.
हालांकि, इससे जीडीपी में किसी प्रकार की वृद्धि दिखायी नहीं देती. इस दौरान अर्थव्यवस्था औसतन सात प्रतिशत सेे नीचे की वार्षिक दर से बढ़ी. हालांकि, हमें इसे स्वीकार करना होगा कि यह वह दौर था, जब दुनिया आर्थिक संकट से बाहर निकल रही थी, कहने का अर्थ यह है कि इस दौरान उच्च वृद्धि प्राप्त करने के लिए बाहरी समर्थन बहुत कम था.
पिछले 15 वर्षों में आर्थिक वृद्धि का सबसे कमजोर दौर वास्तव में तब देखने को मिला, जब हमारे यहां पूर्ण बहुमत वाली सरकार है और वैश्विक अर्थव्यवस्था तेजी से फल-फूल रही है. मेरा मकसद सरकार के प्रदर्शन पर उंगली उठाना नहीं है.
कहने का अर्थ सिर्फ इतना है कि बहुमत की सरकार और जीडीपी वृद्धि दर में कोई रिश्ता नहीं है, जिससे स्टॉक मार्केट और उसके विश्लेषक भयभीत दिखायी देतेे हैं.
दूसरी चिंता यह है कि गठबंधन सरकारें महत्वपूर्ण सुधार नहीं कर सकतीं. हालांकि, भारत में सबसे बड़े आर्थिक सुधारों में से एक 1991 में अल्पमत सरकार के तहत ही हुआ था, जिसके अपने पूरे कार्यकाल में हमेशा गिर जाने का डर सताता रहा.
वर्ष 1998 का तथाकथित ‘सपनाें का बजट’ एक गठबंधन सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जो भारतीय इतिहास की सबसे छोटी सरकार थी (इसे बाहर से कांग्रेस समर्थन दे रही थी). और इसलिए इस इतिहास को देखते हुए इस बात की पड़ताल आसान नहीं है कि आखिर क्यों बाजार गठबंधन सरकार को भारत के लिए अच्छा नहीं मानता है.
पिछले वर्ष पत्रकार टीएन निनान ने तीनों सरकारों, यूपीए के दोनों गठबंधनों तथा वर्तमान की एनडीए सरकार, के विश्व बैंक के विश्वव्यापी शासन संकेतकों की तुलना की थी. इसके अनुसार, भ्रष्टाचार के नियंत्रण में भारत की स्थान प्रतिशतता 2013 के 37.0 से बढ़कर 2016 में 47.1 हो गयी.
हालांकि, यह 2006 के मनमोहन सरकार के 46.8 से ज्यादा अलग नहीं थी. सरकार की प्रभावशीलता के मामले में 2014 में भारत की प्रतिशतता 45.2 थी, जबकि 2016 में यह 57.2 और 2007 में यूपीए की सरकार के दौरान 57.3 थी.
नियामक गुणवत्ता के मामले में भारत ने 2012 में 35.1 प्रतिशतता प्राप्त किया था और 2016 में 41.3, लेकिन वर्ष 2006 में भारत ने 45.1 पाया था, जो सबसे उच्च था.
राजनीतिक स्थिरता और हिंसा की अनुपस्थिति के संबंध में निनान ने भारत की स्थिति को नीचे बताया था. वर्ष 2005 में यह आंकड़ा 17.5 था, और 2014 में 13.8 था. साल 2015 में यह 17.1 था, लेकिन फिर 2016 में यह गिरकर 14.3 पर आ गया, जो 2005 की तुलना में कमतर है.
कानून के शासन मामले में, 2013 (53.1) के मुकाबले 2016 में देश का स्थान (52.4) मामूली नीचे था और 2006 (58.4) की तुलना में यह उल्लेखनीय तौर पर काफी नीचे रहा. छठा और अंतिम संकेतक है आवाज और जवाबदेही. यहां भारत का स्थान साल 2013 के 61.5 से गिरकर 2016 में 58.6 पर आ गया.
निनान का आंकड़ा एकदम स्पष्ट है. इसमें हमें संकेत देने जैसा कुछ भी नहीं है, जैसा कि बाजार और विश्लेषक मानते हैं- ‘एक मजबूत और निर्णायक’ सरकार वह सबकुछ कर सकती है, जो एक ‘कमजोर’ गठबंधन की सरकार नहीं कर सकती. यह नेतृत्व और उसके मार्गदर्शन की बात है, न कि लोकसभा में संख्या बल की, जो सबसे महत्वपूर्ण कारक दिखायी देता है.
जब वास्तविक राष्ट्रीय हित की चर्चा चल रही हो, तब स्पष्ट बहुमत के बिना भी सभी दलों को एक साथ लाना मुश्किल नहीं होता. मैं तर्क करता हूं कि ऐसा भी समय होता है, जब स्पष्ट बहुमत बहुत अच्छी चीज नहीं होती. भारत जैसे काफी विविधताओं वाले देश में, कुछ कठोर कदम उठाने, जो जुआ खेलने जैसा हो सकता है, से बेहतर और बुद्धिमानी भरा कदम है सावधानी बरतते हुए मध्य मार्ग अपनाना.
हमें इस बात को स्वीकार करना होगा कि एक दल की सरकार की सोच का कुछ हिस्सा पूर्वाग्रह पर आधारित है. उदाहरण के लिए, सभी क्षेत्रीय दल भ्रष्ट होते हैं और वे हमेशा स्वार्थी की तरह व्यवहार करेंगे. या जाति आधारित दलों पर बुद्धिमानी भरे फैसले लेने के लिए ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है. यह विश्लेषण से ज्यादा पूर्वाग्रह है और हमारे लोकतंत्र में कोई भी दल इस बात का दावा नहीं कर सकता है कि वह किसी भी तरीके से दूसरे दल से ऊंचा है.
मेरे द्वारा ऐसा लेख लिखने की वजह उत्तर भारत में हाल में घटी घटना है, जो यह संकेत देती है कि साल 2019 की लोकसभा त्रिशंकु हो सकती है या ऐसा भी हो सकता है कि सत्तारूढ़ दल को बहुमत न मिले. अगर ऐसा है और इस वर्ष के अंत में जनमत सर्वेक्षण ऐसा अनुमान लगाना शुरू करते हैं, तो बाजार विश्लेषक और व्यावसायिक पत्र कहने लगेंगे कि अगर ऐसा हुआ, तो यह अर्थव्यवस्था और राजनीतिक स्थिरता के लिए बुरी बात होगी.जबकि, हमारा इतिहास कहता है कि ऐसा होना कोई परेशानी वाली बात नहीं है और हममें से कई लोग त्रिशंकु लोकसभा का स्वागत करते हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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