26.7 C
Ranchi

लेटेस्ट वीडियो

मोदी-शी मुलाकात का महत्व

II योगेंद्र यादव II अध्यक्ष, स्वराज इंडिया [email protected] कुछ सवाल हैं. आखिर चुनावी साल में अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच पीएम मोदी अचानक चीन क्यों गये? वह भी एक अनौपचारिक बातचीत के लिए? वह भी तब, जब कुछ हफ्ते में उन्हें दोबारा चीन जाना ही था? और आखिर मोदीजी ने शी साहब को घोड़े की […]

II योगेंद्र यादव II
अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
कुछ सवाल हैं. आखिर चुनावी साल में अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच पीएम मोदी अचानक चीन क्यों गये? वह भी एक अनौपचारिक बातचीत के लिए? वह भी तब, जब कुछ हफ्ते में उन्हें दोबारा चीन जाना ही था? और आखिर मोदीजी ने शी साहब को घोड़े की पेंटिंग क्यों भेंट की?
इन सीधे से सवालों का जवाब मोदी-शी वार्ता के बारे में लिखे तमाम अखबारी विश्लेषण में नहीं मिलता. पता नहीं क्यों विदेश नीति पर लिखनेवाले भी विदेश नीति करनेवालों की तरह जलेबियां बनाते रहते हैं. इशारे ही इशारे में बात करते हैं और अक्सर पहेलियां बुझाते रहते हैं. इसलिए मुझे लगा कि मुझ जैसे गैर-एक्सपर्ट को इसका सीधा-सा जवाब ढूंढना चाहिए.
सवाल रोचक तो है ही, अहम भी है. पाकिस्तान की फौज जितनी भी खुराफात कर ले, उसके पास न तो वह आर्थिक हैसियत है, न ही सामरिक क्षमता और न ही कोई दीर्घकालिक सोच, जो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को बड़ी चुनौती दे पाये. श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल से संबंध की मिठास घटने-बढ़ने की चुनौती है, लेकिन इनसे सुरक्षा की चुनौती नहीं है.
पड़ोस में सिर्फ चीन ही है, जिसके पास आज अभूतपूर्व आर्थिक शक्ति है, जिसकी सामरिक क्षमता दुनिया में आज किसी से भी लोहा ले सकती है और जिसके नेतृत्व के पास अगले सौ साल की सोचने की क्षमता है. इसलिए जब भारत के प्रधानमंत्री और चीन के राष्ट्रपति मिलते हैं, तो यह दीर्घकालिक महत्व का सवाल बनता है.
मोदी-शी की मुलाकात कोई साधारण समय में नहीं हो रही थी. पिछले कुछ साल भारत-चीन संबंध में तनातनी के साल रहे हैं. कूटनीति की दुनिया में कभी स्टेज पर आकर एक-दूसरे से कुश्ती नहीं होती. लेकिन, यह बात किसी से छुपी नहीं है कि पिछले कुछ समय से भारत और चीन की विदेश नीति में नेपथ्य से काफी रस्साकशी चल रही है.
अमेरिका चाहता है कि चीन के खिलाफ एक बड़ा गठबंधन खड़ा करने में भारत उसका पार्टनर बने. उधर भारत सरकार चीन के आर्थिक विस्तार से चिंतित रहती है. पिछले कुछ समय से दक्षिण एशिया के तमाम मोर्चों पर भारत और चीन आमने-सामने रहे हैं. दुनिया में असर बढ़ाने की चीन की महत्वाकांक्षी योजना ‘बेल्ट’ में भी भारत सरकार ने फच्चर लगा दिया.
यह ढकी-छुपी तनातनी पिछले साल डोकलाम में खुलकर सामने आ गयी. कहने को मामला चीन और भूटान के बीच था, क्योंकि चीन एक ऐसे इलाके में अपनी फौज भेज रहा था, जिस पर भूटान का दावा रहा है. लेकिन, दरअसल भूटान के पीछे भारत खड़ा था. मामला यहां तक पहुंचा कि भारत और चीन की सेनाओं में हाथापाई की नौबत आ गयी. बात सुलट गयी, लेकिन उस वक्त भारत सरकार ने यह प्रचार किया कि हमने चीनी फौज को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया है.
बात सच नहीं थी. यह प्रचार चीन को अखर गया. यहां विदेश नीति में मोदीजी की अनुभवहीनता और बड़बोलापन भारी पड़ गया. उसी समय से चीन ने अपनी सैन्य तैयारी शुरू कर दी. तमाम सुरक्षा विशेषज्ञों ने अब गूगलमैप की मदद से दिखा दिया है कि चीन ने डोकलाम के नजदीक अच्छा-खासा सैनिक जमावड़ा कर लिया है.
वहां अपनी सड़कें बेहतर कर ली हैं, और सात हेलीपैड भी बना लिये हैं. उस समय चीन का नेतृत्व पार्टी की अंदरूनी खींचतान में व्यस्त था, लेकिन जैसे ही राष्ट्रपति शी ने अपनी कुर्सी को आजीवन सुरक्षित कर लिया, तो उनका ध्यान पड़ोस पर जाना स्वाभाविक था. अब मोदीजी को समझ आया कि चीन से पंगा लेना भारी पड़ सकता है.
यह आशंका खड़ी हुई कि इस साल चीन डोकलाम में बेहतर तैयारी के साथ एक सीमित और सांकेतिक बदला ले सकता है. आज हमारी स्थिति इतनी कमजोर नहीं है, जितनी 1962 में थी, लेकिन फिर भी चीन के हमले के क्या परिणाम हो सकते हैं, यह समझना मुश्किल नहीं है. इसीलिए मोदी सब कुछ छोड़ चीन गये थे.
यह सिर्फ मेरा कयास नहीं है. दबी-छुपी शालीन भाषा में विदेश नीति के तमाम एक्सपर्ट भी इसी बात को कह रहे हैं. पिछले दो-तीन महीने से भारत सरकार चीन को मनाने में जुटी है. मालदीव में राजनीतिक उथल-पुथल और भारत से हस्तक्षेप की अपील के बावजूद चीन को नाराज करने के डर से भारत सरकार ने वहां कोई हस्तक्षेप नहीं किया.
मलाबार में ऑस्ट्रेलिया और भारत का संयुक्त नौसेना अभ्यास होना था, चीन के इशारे पर ऑस्ट्रेलिया को बाहर रखा गया. दलाई लामा और उनके साथ आये तिब्बती शरणार्थी भारत सरकार को धन्यवाद करने के लिए आयोजन करना चाहते थे. सरकार ने इस आयोजन को दिल्ली से हटवाया और लिखित निर्देश दिये कि कोई सरकारी अफसर या मंत्री वहां दिखायी नहीं देगा, कहीं चीन नाराज ना हो जाये!
यह तो वक्त बतायेगा कि चीन ने प्रधानमंत्री मोदी की बात को किस हद तक माना. लेकिन, दोनों तरफ के बयान से लगता है कि कुछ तो हासिल हुआ है.
सवाल है कि चीन की इसमें क्या गरज है? दुनिया को सुनाने के लिए हम सभ्यता के पुराने रिश्ते की चाहे कितनी भी दुहाई दें, सच यह है कि चीन को इससे कोई मतलब नहीं है. व्यापार और आर्थिक स्तर पर संबंध गहरे हों, इसके लिए चीन व्यग्र नहीं है. उसकी अर्थव्यवस्था भारत के बिना भी चलती है.
चीन की असली चिंता यह है कि वैश्विक स्तर पर अमेरिका, जापान और अन्य कुछ सहयोगी मिलकर जो चीन-विरोधी खेमा बना रहे हैं, कहीं भारत उसमें शामिल ना हो जाये. चुनावी साल में मोदीजी की कमजोरी को भांपते हुए चीन ने वैश्विक मोर्चे पर भारत सरकार से कुछ ठोस आश्वासन लिये होंगे.
दोनों के बीच क्या समझ बनी यह तो हम नहीं जानते, लेकिन यह जानते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने चीन के राष्ट्रपति को एक चीनी चित्रकार शू बाईहोंग की पेंटिंग भेंट की. कभी शांतिनिकेतन में रहे इस चित्रकार की पेंटिंग में उन्मुक्त घोड़े हैं.
क्या यह महज संयोग है कि दोनों नेता इस वक्त अपने-अपने तरह के अश्वमेध यज्ञ में जुटे हैं? चीन के राष्ट्रपति दुनियाभर में चीन का आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने में जुटे हैं, तो भारत के प्रधानमंत्री फिलहाल देश को कांग्रेस मुक्त बनाने में जुटे हैं. क्या यह पेंटिंग एक इशारा थी कि वैश्विक यज्ञ में हम तुम्हारे साथ रहेंगे, बस मेरे चुनावी यज्ञ में तुम विघ्न मत डालना? अगर यह सच है, तो इसकी कीमत क्या है? मोदीजी को तो अभयदान मिल गया, लेकिन भारत को क्या मिला?
Prabhat Khabar Digital Desk
Prabhat Khabar Digital Desk
यह प्रभात खबर का डिजिटल न्यूज डेस्क है। इसमें प्रभात खबर के डिजिटल टीम के साथियों की रूटीन खबरें प्रकाशित होती हैं।

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

संबंधित ख़बरें

Trending News

जरूर पढ़ें

वायरल खबरें

ऐप पर पढें
होम आप का शहर
News Snap News Reel