पुष्पेश पंत
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा आईएनएफ (इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज) संधि को तोड़ने की घोषणा ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक अप्रत्याशित संकट पैदा कर दिया है.
रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कड़ा रुख अपनाते हुए यह ऐलान करते देर नहीं लगायी कि बदले हालात में रूस के लिए इस ऐतिहासिक समझौते का पालन करना असंभव है, और वह भी अपने सामरिक हितों की रक्षा के लिए इस तरह के परमाण्विक हथियारों के शोध, परीक्षण और उनकी तैनाती के लिए स्वतंत्र है. पुतिन के अनुसार, अनुबंध रूस ने नहीं तोड़ा. अमेरिका के इकतरफा निर्णय के बाद उसके लिए कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं रह गया है. क्या इसे एक नये शीतयुद्ध की शुरुआत समझा जाये, जिसमें परमाण्विक हथियारों की आत्मघाती अंधी दौड़ कभी भी विश्व को सर्वनाश की कगार तक पहुंचा सकती है?
साल 1988 में रोनाल्ड रीगन एवं मिखाइल गोर्बाचेव के बीच आईएनएफ समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे, जिसमें दोनों पक्षों ने यह सहमति बनायी थी कि मध्यम दूरी (500 से 5,500 किमी) तक मारक क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्रों की संख्या तत्काल घटायी जायेगी. दोनों महाशक्तियां इन हथियारों के जखीरे को संतुलित रखेंगी और तय से अधिक हथियारों को नष्ट कर देंगी.
परस्पर भरोसा बढ़ाने की दिशा में यह अभूतपूर्व ऐतिहासिक कदम था. ये प्रक्षेपास्त्र यूरोप में तनाव के कारण थे, इसलिए इनका निरोध-नियंत्रण तनाव शैथिल्य के लिए निर्णायक समझा जाता रहा है. विश्वव्यापी परमाण्विक अप्रसार अभियान को गतिशील बनाने के लिए यह उदाहरण उपयोगी साबित हुआ. यह भी ज्यादा उल्लेखनीय है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद दुनिया की इन दो महाशक्तियाें के बीच यही एक सामरिक संधि अब तक अक्षत थी.
यहां यह जोड़ना भी जरूरी है कि पिछले चार-पांच वर्षों से यह आशंका मुखर की जाती रही थी कि इस संधि का भविष्य अनिश्चित है. अमेरिकी प्रशासन यह आरोप लगाता रहा है कि रूस अपने देश के वचन का पालन नहीं कर रहा है.
वह इस श्रेणी के प्रक्षेपास्त्रों के परीक्षण का काम गुप्त रूप से कर रहा है, उपग्रहों तथा निष्पक्ष पर्यवेक्षकों के माध्यम से निरीक्षण की जो पद्धति तय की गयी थी, उसमें रूस सहयोग नहीं कर रहा है आदि. दूसरी तरफ रूस ऐसे ही अभियोग अमेरिका पर लगाता रहा है. साल 2014 से 2018 तक यही रस्साकशी चलती रही है.
रूस का कहना है कि चीन के पास ऐसे-ऐसे प्रक्षेपास्त्र हैं और इनके खतरे को देखते हुए सिर्फ रूस को ही एकतरफा निशस्त्रीकरण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. यूक्रेन संकट के विकराल रूप धारण करने तथा इस मोर्चे पर रूसी सैनिक हस्तक्षेप ने भी अमेरिका को बौखला दिया है. सीरिया के गृहयुद्ध में असद के समर्थन के कारण भी अमेरिका की चिंताएं बढ़ी हैं. समस्या की जटिलता के अन्य कारण भी हैं.
रूस का मानना है कि परमाण्विक अप्रसार के बारे में अमेरिका दोहरे मानदंड अपनाता है. पाकिस्तान हो या उत्तरी कोरिया, वह इन देशों की परमाण्विक तस्करी की तरफ आंखें मूंदे रहा है. यह जगजाहिर होने पर भी कि किम जोंग-उन अमेरिका को दिये आश्वासनों को नकार आज भी परमाण्विक अस्त्रों से सज्जित मिसाइलों का परीक्षण कर रहा है, ट्रंप उस उद्दंड निरंकुश देश के साथ राजनयिक संवाद जारी रखने को उत्सुक हैं. रूस का आरोप यह भी है कि आईएनएफ संधि का उल्लंघन पहले अमेरिका ने ही किया, जब उसने मोटर वाहनों पर छोटे-छोटे प्रक्षेपास्त्र रख आईएनएफ को झुठलाने की रणनीति अपनायी.
मौजूदा संकट को अच्छी तरह समझने के लिए इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि ट्रंप एकाधिक बार यह स्पष्ट कर चुके हैं कि अटलांटिक बिरादरों को अपनी सुरक्षा के खर्च में हाथ बंटाना होगा.
भविष्य में ये यूरोपीय देश निःशुल्क अमेरिकी परमाण्विक छत्रछाया का सुख नहीं भोग सकते. दूसरे शब्दों में, अगर शस्त्रों की नयी दौड़ शुरू होती भी है, तो उसका कमरतोड़ बोझ अमेरिका की तुलना में रूस पर कहीं अधिक पड़ेगा! विद्वानों का मानना है कि 1980 वाले दशक में सोवियत संघ को खस्ताहाल बना दिवालियेपन की कगार तक पहुंचाने के लिए रोनाल्ड रीगन ने ‘स्टार वार्स’ का मायाजाल रचा था, पुतिन को कमजोर करने के लिए ट्रंप यही रणनीति अपना रहे हैं.
आज का अमेरिका खुद मंदी की चपेट में है और पुतिन-राज वाला रूस अराजकता और टूट से आतंकित हताश राज्य नहीं है. पुतिन के तेवर आक्रामक और जुझारू हैं तथा वह पहले पलक झपकानेवाले नहीं. इससे कुछ विश्लेषक यह नतीजा निकालने की उतावली कर रहे हैं कि परमाण्विक हथियारों की खतरनाक दौड़ दोबारा शुरू हो चुकी है.
दोनों महाशक्तियां यह जानती हैं कि परमाण्विक हथियारों के प्रयोग की परिणति उभयपक्षीय परमाण्विक सर्वनाश में ही हो सकती है. इसे अंग्रेजी में ‘मैड’ (म्युचुअली अस्योर्ड डिस्ट्रक्शन) का नाम दिया गया है.
आतंक का संतुलन ही हिरोशिमा-नागासाकी से आज तक संसार को परमाण्विक विस्फोट से निरापद रखने में कामयाब रहा है. यह उपलब्धि किसी संधि की नहीं. असल में ‘स्टार्ट’ या ‘सौल्ट’ नामक संधियां या वैश्विक स्तर पर परमाण्विक अप्रसार को लागू करवानेवाली ‘पार्शियल’ या ‘कंप्रिहेंशियल टेस्ट बैन ट्रिटी’ आदि संधियों का शिकंजा भारत जैसे उदीयमान परमाण्विक देशों को पंगु बनाने के लिए कसा जाता रहा है.
आतंक के संतुलन के कारण अमेरिका तथा रूस का शक्ति-संघर्ष परोक्ष रूप से किसी निर्णायक महासंग्राम में नहीं, क्षेत्रीय मोर्चों में जारी रहा है.
एक-दूसरे के मर्मस्थल पर संहारक वार करने की क्षमता वाले प्रक्षेपास्त्र मध्यम दूरी वाले ये हथियार नहीं, वरन अंतरमहाद्वीपीय (इंटरकांटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल) हैं, जिन्हें लड़ाकू बमबार विमानों तथा समुद्र के गर्भ में अदृश्य और सदैव चलायमान पनडुब्बियों में तैनात किया गया है.
पहला वार करने का दुस्साहसी यह जानता है कि इसे झेलने के बाद भी सर्वनाशी जवाबी हमला करने की क्षमता घायल शत्रु की बची रहेगी. अगर शांति बरकरार रही है, तो परमाणु हथियारों से संपन्न महाशक्तियों के जिम्मेदार आचरण के कारण नहीं, बल्कि इसी डर से.
दरअसल, आईएनएफ पिछले दशक से ही मृतप्राय रही है, इस घड़ी ट्रंप और पुतिन की नूराकुश्ती उसके देहांत की औपचारिक घोषणा भर है, जिससे संसार सर्वनाश की कगार तक अचानक नहीं पहुंच गया है.