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संजय बारू द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर के लेखक [email protected] देश के उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में शुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्थापक प्रोफेसरों में से एक तथा राजनीति की समझ रखनेवाले एक अनुभवी राजनीतिशास्त्री दिवंगत रशीदुद्दीन खान अक्सर भारतीयों की अखिल भारतीय पहचान को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी किया करते थे. रशीदुद्दीन खान कहते थे कि […]

संजय बारू
द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर के लेखक
देश के उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में शुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्थापक प्रोफेसरों में से एक तथा राजनीति की समझ रखनेवाले एक अनुभवी राजनीतिशास्त्री दिवंगत रशीदुद्दीन खान अक्सर भारतीयों की अखिल भारतीय पहचान को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी किया करते थे.
रशीदुद्दीन खान कहते थे कि केवल ब्राह्मण और मुस्लिम ही वास्तव में अखिल भारतीय समुदाय का निर्माण करते हैं.प्रोफेसर रशीदुद्दीन खान ने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि एक ब्राह्मण या मुस्लिम देश के किसी भी हिस्से से ही क्यों न आते हों, वे देश के दूसरे हिस्से से आनेवाली अपनी जाति के साथ शीघ्र ही संबद्ध भी हो जाते हैं.
लिहाजा, उत्तराखंड के भारद्वाज गोत्र के वैष्णव को तमिलनाडु के अपने साथी ब्राह्मण के साथ अपनी सामाजिक, जाति और उप-जाति के दर्जे को बताने में कोई समस्या नहीं होगी. ठीक इसी तर्ज पर एक मुस्लिम के बारे में भी बहुत हद तक ऐसा ही कहा जा सकता है. केरल का मलयाली भाषी सुन्नी उत्तर प्रदेश के उर्दू भाषी सुन्नी के साथ सामाजिक तौर पर जुड़ जायेगा.
रशीदुद्दीन खान के तर्क को विस्तार देते हुए अनुसूचित जातियों या दलितों के बारे में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है. वे अपने बीच की अलग-अलग उप-जातियों की पहचान के बावजूद एक-दूसरे से संबद्ध हो जाती हैं. देश के विभिन्न हिस्सों में जिस किसी भी प्रासंगिक स्थानीय नाम के साथ एक दलित पहचाना जाता हो, अखिल भारतीय स्तर पर सभी अनुसूचित जाति/ दलित एक ही भाव से सामाजिक प्रताड़ना के इतिहास को महसूस करते हैं.
इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश की पूर्व मूख्यमंत्री मायावती और आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी हैं. दरअसल, दलित नेता के तौर पर मायावती और मुस्लिम नेता के तौर पर असदुद्दीन ओवैसी दोनों ही अपनी पहचान के आधार पर अखिल भारतीय निर्वाचन क्षेत्र बनाने की कोशिश करते हैं.
क्षत्रीय और वैश्य वर्ग की समस्या यह है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ये जिस नाम से जाने जाते हैं, वे इतने भिन्न हैं कि उन्हें अपनी जाति को बताने के लिए अपने स्वजन से अपनी सामाजिक स्थिति की व्याख्या करनी होगी. तेलुगु देशम पार्टी के करिश्माई संस्थापक दिवंगत एनटी रामाराव ने हरियाणा के जाट नेता दिवंगत चौधरी देवीलाल से अपनी जाति की व्याख्या करने के लिए एक आसान तरीका खोजा था, ‘मेरी जाति आपकी ही तरह है. कम्मा आंध्र प्रदेश के जाट हैं.’
भारत के भिन्न-भिन्न हिस्से के जो लोग जाति पिरामिड के शीर्ष और निचले पायदान पर हैं, वे सामाजिक पदानुक्रम में एक-दूसरे को रख सकते हैं, और संभवत: एक-दूसरे की सांस्कृतिक आदतों और पूर्वाग्रहों को भी संबद्ध कर सकते हैं.
ऐसा वे मध्य जातियों की विशाल बहुलता के मुकाबले कहीं ज्यादा आसानी से कर सकते हैं. यह तथाकथित ‘पिछड़ा वर्ग’ की अखिल भारतीय विविधता है, जो एक पहेली बन जाती है. सवाल है कि तेलंगाना का मुन्नूरु कापू किस प्रकार व्याख्या करेगा कि जाति पदानुक्रम में वह बिहार के कुर्मी की तुलना में कहां खड़ा है, सिवाय यह बताने के कि वे दोनों ‘अन्य पिछड़ी जाति/ वर्ग’ (ओबीसी) से हैं.
‘ओबीसी कौन है’? यह पूरे देश में अब एक राजनीतिक मुद्दा बन चुका है. आर्थिक रूप से सक्षम मराठा, पाटीदार और कापु, सभी ने आरक्षण के शैक्षणिक और राेजगार के लाभ का दावा करने के लिए ओबीसी दर्जे की मांग की है और कहीं-कहीं तो इसे लेकर आंदोलन भी हुए हैं. हमारे देश में ओबीसी पहचान में क्षेत्रीय विविधता देखते हुए पिछड़ा वर्ग/ जाति की राजनीति हमेशा से एक क्षेत्रीय चरित्र रही है. इसीलिए प्रत्येक राज्य के अपने क्षेत्रीय ओबीसी नेता और दल हैं.
ऐसे में प्रश्न उठता है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने यह दावा किया था कि विपक्षी दल के उच्च जाति के नेताओं द्वारा उन्हें इसलिए गाली दी जा रही है, क्योंकि वह ओबीसी से आते हैं, तो क्या वह अपनी जाति की स्थिति पर ध्यान आकर्षित कर रहे थे और अपनी धार्मिक मान्यता से ध्यान हटा रहे थे? यह भी सवाल उठता है कि उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या ओबीसी निर्वाचन क्षेत्र के लिए एक राष्ट्रीय संरचना बनाने की तलाश कर रहे थे?
दिलचस्प बात यह है कि नरेंद्र मोदी के बयानों के जवाब में अलग-अलग राज्यों के दूसरे ‘क्षेत्रीय’ ओबीसी नेताओं ने उनके दावों पर प्रश्न उठाया है.
दरअसल ये प्रश्न इसलिए उठाये गये हैं, क्योंकि अखिल भारतीय विविधताओं को देखते हुए ऐसा पूछना बेहद आसान है कि ओबीसी कौन है. देशभर में ओबीसी पहचान की अस्पष्टता ने अब तक कई लोगों को ओबीसी दर्जे का दावा करने की छूट दी है और अभी तक हमारे यहां कोई भी अखिल भारतीय स्तर का ओबीसी नेता नहीं है.
जिस समय एचडी देवगौड़ा देश के पहले ओबीसी प्रधानमंत्री बने थे, उनका राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र क्षेत्रीय रूप से सीमित था. क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद को पहले अखिल भारतीय ओबीसी नेता के रूप में पेश करने के लिए कोई राष्ट्रीय ओबीसी निर्वाचन क्षेत्र बनाया है? संभवत: इस आम चुनाव के परिणाम ही इस प्रश्न का सही उत्तर दे सकते हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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