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उच्च शिक्षा के प्रति जिम्मेदारी

मणींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू [email protected] चुनाव का मौसम खत्म हुआ. अब ठोस नीतिगत फैसलों की जरूरत है. जिस तरह जनता ने एक मौका और दिया है, उससे सत्तारूढ़ पार्टी समूह के लिए आनेवाले दिन अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी. यदि सही नीतियां नहीं बनीं, तो देश की जनता उतनी ही […]

मणींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
चुनाव का मौसम खत्म हुआ. अब ठोस नीतिगत फैसलों की जरूरत है. जिस तरह जनता ने एक मौका और दिया है, उससे सत्तारूढ़ पार्टी समूह के लिए आनेवाले दिन अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी. यदि सही नीतियां नहीं बनीं, तो देश की जनता उतनी ही बेरहम हो सकती है, जितनी सहृदय है. इस सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती उच्च शिक्षा में नीतिगत फैसलों की है. सरकार से जुड़े एक महत्वपूर्ण व्यक्ति ने एक साक्षात्कार में जो बातें कही हैं, उससे नौकरियों के लिए इंतजार कर रहे छात्रों के मन में कुछ अनिष्ट की शंका उत्पन्न हो गयी है.
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बिहार मॉडल को भले ही सफल नहीं माना जा सकता है, लेकिन हाल में हुए शिक्षकों के चयन से बड़ी उम्मीद जगी है.
शायद पहली बार सरकार के विरोधियों से भी आप सुन सकते हैं कि इसने यह काम बिल्कुल निष्पक्ष और उत्तम तरीके से किया है. सैकड़ों छात्र जिनका चयन हुआ है और जिनका नहीं हो पाया है, दोनों से आप सुन सकते हैं कि चयन का यह तरीका अनुकरणीय है. केंद्र सरकार और अन्य राज्य सरकारों को बिहार से यह नुस्खा ले लेना चाहिए. यदि इसी तरह से सरकार आगे भी चयन करने में सक्षम होती है, तो हम बेझिझक कह सकते हैं कि बिहार में उच्च शिक्षा के अच्छे दिन आनेवाले हैं. सारी कमियों के बावजूद राज्य में स्कूली शिक्षा को हर बच्चे तक पहुंचाने के प्रयास की आप सराहना किये बिना नहीं रह सकते हैं. शायद आनेवाले समय में ऐसा ही कुछ विश्वविद्यालयों में भी होना संभव हो.
यदि बिहार के इन युवा बुद्धिजीवियों को सही ढंग से सहयोग दिया गया तथा महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को सुधारने की सही नीतियां बनायी गयीं, तो वह दिन दूर नहीं है, जब हमारे बच्चे केवल बीए की डिग्री के लिए भागे-भागे नहीं फिरेंगे. राज्य की आय का बहुत बड़ा हिस्सा इन प्रवासी छात्रों के माध्यम से दूसरे शहरों में जाने से बच जायेगा.
सरकार को ‘स्कूल ऑफ कॉम्पिटिशन’ बना कर ‘कोटा फैक्टरी’ जैसे शिक्षा के बाजार को भी ध्वस्त कर देना चाहिए, जहां छात्र और शिक्षक तो बिहारी हैं, परंतु उनसे धन कोई और ऐंठ रहा है. बिहार के विकास का रास्ता शिक्षा से होकर ही गुजरता है. आखिर कोई कारण तो रहा होगा कि प्राचीन विश्वविद्यालयों में ज्यादातर इसी राज्य में थे और न जाने कितने दर्शन और ज्ञान-विज्ञान का विकास इस भूमि पर हुआ है.
बिहार में हुए चयन की तुलना यदि दिल्ली विश्वविद्यालय से की जाय, तो बात और समझ में आ जायेगी. पिछले कुछ वर्षों में जो चयन प्रक्रिया दिल्ली विश्वविद्यालय में अपनायी गयी है, वह इन युवा बुद्धिजीवियों के लिए बेहद अपमानजनक रही है. भारत के बुद्धिजीवियों की यह पीढ़ी न केवल वर्षों तक ‘एडहॉक’ (अस्थायी) शिक्षक के रूप में कार्यरत रहने के लिए अभिशप्त है, बल्कि उसके लिए भी विभाग में शर्मनाक ढंग से जी-हुजूरी करनी पड़ती है. उनके स्वाभिमान को पूरी तरह से कुचल दिया जाता है. कुछ ही रसूखदार प्रोफेसरों को जिनकी राजनीतिक गलियारे में पहुंच है, हर साक्षात्कार के लिए भेजा जाता है.
और, वहां साक्षात्कार कम और उपस्थित चयन टीम में बाजीगरी ज्यादा होती है. साक्षात्कार के लिए आये बच्चों के चेहरों का दर्द आपको बता सकता है कि यहां तो मैच फिक्सिंग हो चुकी है. यह व्यवस्था सामंतवाद की याद दिलाती है. केंद्र सरकार को भी बिहार सरकार के इस प्रयोग से सीखना चाहिए, ताकि एक निष्पक्ष चयन प्रक्रिया चल सके.
विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता के लिए चयन की प्रक्रिया का सही होना क्यों जरूरी है? सबसे बड़ी बात है कि इससे शिक्षकों में चयनकर्ताओं के प्रति अनुगृहीत होने के बदले आत्मसम्मान का भाव होगा.
आज की हालत में रसूखदार प्रोफेसरों के परिक्रमा करने के अपमान से उनकी रक्षा होगी. अपनी संपूर्ण क्षमता के साथ काम कर पाने के लिए शिक्षकों में आत्मसम्मान का भाव बेहद जरूरी है. उनके वैचारिक स्वतंत्रता के लिए यह अति आवश्यक है. जिन शिक्षकों को कृपा के कारण नियुक्तियां मिली हैं, उनमें जो कुंठा पैदा होती है, वह ज्ञान के पेशे के लिए सबसे घातक है.
उम्मीद है कि आनेवाले समय में राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना नियुक्तियां हो पायेंगी. विश्वविद्यालयों में राजनीतिक विचारधाराएं तो हो सकती हैं, क्योंकि ये आखिर विश्वविद्यालय हैं, सचिवालय नहीं हैं.
लेकिन, इन्हें सरकारी हस्तक्षेप से बचाये रखना राष्ट्रहित में है, क्योंकि आनेवाले समय में युद्ध सेनानियों से नहीं लड़े जायेंगे, बल्कि अब बौद्धिक युद्ध होगा. कौन-सा राष्ट्र बौद्धिक उत्पादन और नवीन ज्ञान के सृजन में कितना आगे है, वही तय करेगा कि विश्व में वह कितना शक्तिशाली है. एक देश दूसरे देश को अपना माल युद्ध के द्वारा तो नहीं ही बेच सकता है.
माल का बिकना लोगों की पसंद पर निर्भर करेगा और इस पसंद को ही कृत्रिम तरीके से निर्धारित किया जा सकता है. इसलिए ज्ञान उत्पादन केंद्र को बौद्धिक स्वतंत्रता देने की जरूरत होगी. यदि शासक वर्ग विश्वविद्यालयों को अपने अधीनस्थ करने का प्रयास करेंगे, तो वहां बुद्धिजीवी नहीं, बल्कि जयघोष करनेवाले चारण ही रह जायेंगे और चारण भक्ति के कसीदे तो पढ़ सकते हैं, लेकिन नवीन ज्ञान सृजन नहीं कर सकते हैं.
इसलिए राज्य की जिम्मेदारी है कि मुक्तहस्त इन ज्ञान केंद्रों पर खर्च करे, बिना यह परवाह किये कि वैचारिक रूप से वहां के छात्र और शिक्षक उनके साथ हैं या नहीं. सरकारों के लिए विश्वविद्यालय एक तरह से उनकी नीतियों की सफलता-असफलता के लिए फीडबैक देने की व्यवस्था है.
आखिर भारत में यह प्रचलित है कि ‘निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करत सुभाय.’ बिहार सरकार ने यदि बिना इस बात की परवाह किये कि नियुक्त होनेवाला शिक्षक उनके राजनैतिक विचारों को माननेवाला है कि नहीं, अपना काम किया है, तो हमें समझना चाहिए कि बिहार की उच्च शिक्षा में बदलाव की उम्मीद है.
बिहार सरकार का यह प्रयोग केंद्र सरकार और अन्य राज्य सरकारों के लिए प्रेरणा का काम करे, तो अच्छा है. उम्मीद है कि चुनाव के तुरंत बाद राजनेताओं का जो कलुषित मानस है, उससे ध्यान-मनन करने से मुक्ति मिल पायेगी और भारत के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नीतियों का निर्माण निष्पक्ष और राष्ट्रहित में होगा.
Prabhat Khabar Digital Desk
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