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आयकर दायरा बढ़ाना जरूरी

अभिजीत मुखोपाध्याय अर्थशास्त्री, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन [email protected] प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे देश में आयकरदाताओं की कम संख्या पर जो चिंता जतायी है, वह विचारणीय है तथा इस मसले के अलग-अलग पहलुओं को समझना जरूरी है. वर्ष 2017-18 में 6.85 करोड़ लोगों ने अपनी का आमदनी का ब्यौरा जमा किया था, जिनमें से दो करोड़ […]

अभिजीत मुखोपाध्याय
अर्थशास्त्री, ऑब्जर्वर
रिसर्च फाउंडेशन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारे देश में आयकरदाताओं की कम संख्या पर जो चिंता जतायी है, वह विचारणीय है तथा इस मसले के अलग-अलग पहलुओं को समझना जरूरी है. वर्ष 2017-18 में 6.85 करोड़ लोगों ने अपनी का आमदनी का ब्यौरा जमा किया था, जिनमें से दो करोड़ से कुछ ज्यादा लोगों ने कर नहीं दिया था. इसके अगले साल यानी 2018-19 में यह संख्या गिरकर 6.33 करोड़ हो गयी थी. वित्त वर्ष 2018-19 में आयकर ब्यौरे की संख्या और टीडीएस यानी भुगतान के समय ही टैक्स काटने की संख्या को जोड़ दें, तो यह संख्या 8.45 करोड़ रही थी. इस हिसाब से करीब चार करोड़ लोग आयकर देते हैं.
अब कुछ अन्य तथ्यों को देखा जाये. हमारे देश में आठ लाख से भी अधिक डॉक्टर हैं, लेकिन इनमें से लगभग आधे ही कर चुकाते हैं. इसी तरह से दूसरों को कर भरने और बचाने में मदद करनेवाले चार्टर्ड एकाउंटेंटों की करीब एक तिहाई संख्या ही अपना टैक्स जमा करती है. देश के हर शहर और कस्बे में हम कई नर्सिंग होम देखते हैं, लेकिन पूरे देश में केवल 13 हजार नर्सिंग होम ही टैक्स देते हैं. विडंबना ही है कि यह संख्या कर चुकानेवाले फैशन डिजाइनरों से भी कम है. देश के 14 हजार से अधिक डिजाइनर आयकर देते हैं.
आयकर व्यवस्था में सुधारों की पृष्ठभूमि की चर्चा जरूरी है. साल 1993 में राजा चलैया कमिटी ने अपने सुझाव में कहा था कि कर की दरों को घटाया जाना चाहिए तथा विभिन्न श्रेणियों के बीच के अंतर को भी कम किया जाना चाहिए यानी उच्च व निम्न दरों में बहुत अधिक खाई नहीं होनी चाहिए. एक समस्या यह है कि ऐसे कारोबार में जहां दो या अधिक लोग भागीदारी में होते हैं, उन्हें दोहरा कर चुकाना पड़ता है.
ऐसे कारोबारियों को अपने व्यवसाय का कॉरपोरेट टैक्स भी देना होता है तथा अपनी आमदनी पर भी आयकर चुकाना पड़ता है. उस कमिटी ने इसे हटाने की सलाह दी थी. मेरी भी राय है कि ऐसे मामलों में एक तार्किक रवैया अपनाया जाना चाहिए. यदि इस तरह के व्यवसायियों को कुछ राहत मिलती है, तो यह माना जा सकता है कि उन्हें कर चुकाने में कोई हिचक नहीं होगी. इसके बाद एक बड़ी पहल प्रत्यक्ष कर संहिता (डायरेक्ट टैक्स कोड) के रूप में 2010 में हुई.
अगले दो साल तक इस पर सरकार चुप्पी साधे बैठी रही थी और बाद में कुछ चर्चा भी हुई, पर इसे लागू करने की दिशा में कोई खास कोशिश नहीं हुई. इसमें कहा गया था कि दो से पांच लाख की आमदनी पर दस फीसदी, पांच से दस लाख रुपये पर बीस फीसदी और उससे ऊपर तीस फीसदी की दर रखी जानी चाहिए. कंपनियों के लिए तीस फीसदी दर का प्रस्ताव था. विदेशी कंपनियों से 15 फीसदी का एक अतिरिक्त टैक्स स्थानीय शाखा लाभ से कर लेने का प्रावधान किया गया था. गैर-लाभकारी क्षेत्र के लिए भी 15 फीसदी कर की व्यवस्था थी.
इसी तरह से विभिन्न सेक्टरों में स्थिर दर का प्रस्ताव उस संहिता में था. उसमें कंपनियों को मिल रही छूट हटाने तथा व्यक्तिगत करदाता के लिए छूट का उल्लेख था. राजा चलैया समिति की तरह संहिता में भी कैपिटल गेन टैक्स को तार्किक बनाते हुए स्टॉक मार्केट को छोड़कर अल्पकालिक और दीर्घकालिक पूंजी आमद में कोई अंतर नहीं रखा गया था. इसमें एक विवादित प्रस्ताव यह भी था कि कर वंचना को लेकर कराधान से जुड़ी एजेंसियों की मर्जी के अनुसार कभी भी एक आम कानून लागू किया जा सकेगा. इसके लिए कोई दिशा-निर्देश भी निर्धारित नहीं किया गया था.
संहिता के प्रस्तावों में से कुछ बातों को तो लागू किया जा सका है, लेकिन इस बार के बजट में टैक्स घटाने की जगह बढ़ा दिया गया है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तावित नयी और वैकल्पिक आयकर व्यवस्था में व्यक्तिगत छूटों को पूरी तरह हटा दिया गया है और उसमें कई श्रेणियां भी बना दी गयी हैं.
इसी तरह से संपत्ति कर राजस्व का अहम हिस्सा है और यह व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन इसमें छूटों की सीमा बढ़ाने का कोई मतलब नहीं है. इस चर्चा में यह भी संज्ञान लेना चाहिए कि डिजिटल इंडिया का दायरा बढ़ाने की बात हो रही है, तो इस तकनीकी विस्तार का फायदा कराधान प्रणाली में भी उठाना जरूरी है. निश्चित रूप से आय का सही ब्यौरा देने पर जोर देना चाहिए, लेकिन यह भी तथ्य है कि बहुत बड़ी संख्या में आय की जानकारी और कर देनेवाले लोगों से जुड़ी सूचनाएं एजेंसियों के पास है.
बैंक खाता, आधार और पैन संख्या से अधिकतर दस्तावेज जुड़े होते हैं. ऐसे में एजेंसियों को उन लोगों की पहचान करनी चाहिए, जो कर नहीं देते या कम देते हैं. यदि ऐसा नहीं हो पा रहा है, तो इसके दो कारण हो सकते हैं, या तो ठीक से डिजिटाइजेशन नहीं हुआ है, या फिर हुआ है, तो उसका फायदा उठाने के लिए अन्य संसाधनों की उपलब्धता सही तरह से नहीं है. इन समस्याओं पर ठीक से ध्यान देने की जरूरत है.
इस संदर्भ में वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था पर भी बात होनी चाहिए. यह प्रणाली इसीलिए लायी गयी है कि कराधान से जुड़ी समस्याओं व जटिलताओं का ठोस समाधान हो सके. लेकिन तकनीकी और दरों से संबंधित बाधाएं इसमें भी अपेक्षित परिणामों को प्रभावित कर रही हैं. हमें कर चोरी रोकने और मौजूदा व्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ आबादी के बड़े हिस्से की आमदनी बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए ताकि कर देने लायक संख्या में बढ़ोतरी हो सके.
बहरहाल, यह संतोष की बात है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से आनेवाले राजस्व में कभी जो बड़ा अंतर होता था, वह हाल के वर्षों में कम हुआ है. इसका मतलब है कि करदाताओं की भी संख्या बढ़ रही है और कर की राशि में भी बढ़ोतरी हो रही है.
सरकार को नियमित रूप से और ईमानदारी से कर जमा कर रहे लोगों- चाहे वह कर आयकर हो या कॉरपोरेट टैक्स हो- का भी ख्याल रखना चाहिए. ऐसे लोगों के पीछे तकनीकी और मानव संसाधन को खर्च करने का कोई तुक नहीं है. तमाम वेतनभोगी और कई कारोबारी इस श्रेणी में आते हैं. ऐसे लोगों से जुड़ी सभी जानकारियां भी विभागों के पास है. उन संसाधनों को कहीं और इस्तेमाल किया जा सकता है. यह भी कि जब अर्थव्यवस्था संतोषजनक स्थिति में न हो और विभिन्न सेक्टरों में आशंकाएं हो, कराधान प्रणाली में बड़े बदलाव करने से परहेज किया जाना चाहिए
Prabhat Khabar Digital Desk
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