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नये वर्ष में भारत-पाकिस्तान संबंध

मोदी सरकार के पास अवसरों की खिड़की खोलने की क्षमता है. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो शांति प्रक्रिया का स्थगन जारी रहेगा और आनेवाले समय में शांति बहाली की कोशिशों की ताकत भी घटती जायेगी. भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का चुनाव तो आश्चर्य की बात नहीं थी, पर उनका भारी बहुमत पाना […]

मोदी सरकार के पास अवसरों की खिड़की खोलने की क्षमता है. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो शांति प्रक्रिया का स्थगन जारी रहेगा और आनेवाले समय में शांति बहाली की कोशिशों की ताकत भी घटती जायेगी.
भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी का चुनाव तो आश्चर्य की बात नहीं थी, पर उनका भारी बहुमत पाना अप्रत्याशित था. विडंबनात्मक रूप से भारत के लोकसभा के चुनाव पाकिस्तान में 2013 में हुए आम चुनाव की याद दिला गये, जिसमें नवाज शरीफ को सरकार बनाने के लिए जबर्दस्त जनादेश मिला था. इन दोनों ही स्थितियों में राजनीतिक विकल्पहीनता और पिछली सरकारों के विरुद्ध असंतोष किसी भी अन्य कारणों से अधिक प्रभावी कारक रहे. दोनों ही चुनावों ने एक तीसरे विकल्प को भी प्रस्तुत किया. भारत में आम आदमी पार्टी स्थापित पार्टियों को पराजित न कर सकी और पाकिस्तान में तहरीक-ए-इंसाफ पिछले कई महीने से धरना-प्रदर्शनों के माध्यम से चुनाव में हुई कथित धांधली के खिलाफ न्याय का गुहार कर रही है.
पाकिस्तान में मोदी के प्रचार और जीत को काफी गौर से देखा गया और उन पर अलग-अलग राय व्यक्त की गयी. एक राय के अनुसार, मोदी के अतीत और विचारधारात्मक रुझान के कारण उनसे शांति की उम्मीद करना बेकार है. दूसरे विचार ने सावधानी रखते हुए उनके विकासोन्मुख आर्थिक नीतियों के प्रति सकारात्मक रुख दिखाया और उम्मीद जतायी कि वे पाकिस्तान के साथ संघर्ष कर अर्थव्यवस्था को संकट में नहीं डालेंगे, बल्कि दोनों देशों के बीच बेहतर वाणिज्यिक और व्यापारिक संबंध बहाल करने की कोशिश करेंगे. तीसरी समझ यह थी कि मोदी भारत के लिए हैं और उनके आने से दोनों देशों के परस्पर संबंध पहले की तरह बने रहेंगे. चौथी राय यह मानती है कि सिर्फ और सिर्फ मोदी ही शांति स्थापित कर सकते हैं और उनके आने से दोनों देशों को एक अवसर मिला है, जिसे वे अच्छी या बुरी दिशा में ले जा सकते हैं.
निश्चित तौर पर ये चारों राय आंशिक रूप से ही सही हैं, पर गंभीर पहल के लिए यह एक सही समय है. पाकिस्तान के उलट भारत भले इसे घिसा-पिटा समझ माने, लेकिन दोनों देशों के आपसी संबंधों को बेहतर या खराब करने की पहल की क्षमता भारत के पास ही है. परस्पर संघर्षो से मुक्ति के लिए की जानेवाली शांति की पहलों की अपनी कीमत है, पर पाकिस्तान की तुलना में आंतरिक और बाह्य कारणों से भारत अगुवाई करने के लिए बेहतर स्थिति में है. शरीफ और मोदी के आर्थिक विचारों में समानता को देखते हुए अवसरों की खिड़की खोली जा सकती है.
एक बहुत ही ठोस समझ आर्थिक संबंधों और जुड़ाव की बेहतरी तथा अनावश्यक वीजा नियमों को हटाने में भरोसा रखती है. मोदी के पास मजबूत जनादेश है और वे न सिर्फ पाकिस्तान को छोड़ कर अन्य देशों से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि अपनी एक विशिष्ट विरासत भी बनाने की आकांक्षा रखते हैं. क्या सियाचिन और सर क्रीक जैसे अपेक्षाकृत छोटे मसलों का समाधान बेहतर संबंध का एक आधार तैयार कर सकता है? अफगानिस्तान भी फिलहाल शांति से संक्रमण-पथ पर अग्रसर है. यह देश अपने पूर्व में स्थित पड़ोसियों के लिए छद्म-युद्ध की जगह नहीं हो सकता है. भले ही यह बहुत साधारण सुझाव है, लेकिन नियंत्रण रेखा को कामचलाऊ सीमा के रूप में बदलना पारंपरिक झगड़ों के पुनर्उभार को रोकने का ठोस विकल्प हो सकता है.
नियंत्रण रेखा और भारत-पाक सीमा के उल्लंघन की घटनाएं कोई नयी बात नहीं हैं, लेकिन वर्तमान संदर्भो में वे आक्रामक, उपेक्षापूर्ण और अति सक्रिय भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं और पाकिस्तान को समुचित संकेत भी दे रहे हैं. लेकिन, क्या पाकिस्तान को नरेंद्र मोदी और उनकी टीम के कश्मीर पर रुख को नजरअंदाज कर देना चाहिए, जैसा कि अमेरिका का मानना है? अगर कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में बदलाव किया गया, तो क्या राज्य के नियंत्रण से बाहर के हिंसक तत्वों को काबू में रख पाना संभव होगा, जो हमेशा नये संघर्षो की ताक में रहते हैं?
क्या यह माना जाये कि भारत की अति सक्रियता एक मुहावरा बन चुके मुंबई की प्रतिक्रिया है? अगर ऐसा है, तो यह निराशावादियों की जीत है. लेकिन, एक बात तो निश्चित है कि अभी नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के संबंध में कोई ठोस नीति नहीं बनायी है. उम्मीद है कि वे जल्दी ही ऐसा करेंगे, और जैसा कि आशावादी महसूस करते हैं, इस सरकार के पास अवसरों की खिड़की खोलने की क्षमता है. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो शांति प्रक्रिया का स्थगन जारी रहेगा और आनेवाले समय में शांति बहाली की कोशिशों की ताकत भी घटती जायेगी.
हाल में दक्षेस शिखर सम्मेलन में मुस्करा कर परस्पर अभिवादन किये गये. अगर इस अवसर को गंभीरता से लिया जाये, तो 2015 में, एक वैकल्पिक ब्रह्मांड में, दक्षिण एशिया एक धनी क्षेत्र है, जहां निराशाजनक आंकड़ों के बजाय विकास के मानदंड हैं और अफगानिस्तान से बांग्लादेश तक राजनेता समृद्धि के लिए प्रयासरत हैं.
(इंस्टीटय़ूट ऑफ पीस एंड कन्फ्लिक्ट स्टडीज से साभार)
सलमा मलिक
रक्षा विशेषज्ञ, कायदे-आजम यूनिवर्सिटी, इसलामाबाद
Prabhat Khabar Digital Desk
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