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बुद्धिनाथ मिश्रा वरिष्ठ साहित्यकार समस्तीपुर के पुराने मारवाड़ी बाजार में लगभग पांच दशक के बाद उस शाम घूम रहा था. दुर्गापूजा की गहमागहमी थी. पूजा की वस्तुओं और हरी-हरी सब्जियों से पूरी सड़क अतिक्रमित थी. मेरे साथ उस क्षेत्र के चलते-फिरते विश्वकोश योगेंद्र पोद्दार थे. गुदरी बाजार के बाद हम लोग जिस दुकान पर चाय […]

बुद्धिनाथ मिश्रा
वरिष्ठ साहित्यकार
समस्तीपुर के पुराने मारवाड़ी बाजार में लगभग पांच दशक के बाद उस शाम घूम रहा था. दुर्गापूजा की गहमागहमी थी. पूजा की वस्तुओं और हरी-हरी सब्जियों से पूरी सड़क अतिक्रमित थी.
मेरे साथ उस क्षेत्र के चलते-फिरते विश्वकोश योगेंद्र पोद्दार थे. गुदरी बाजार के बाद हम लोग जिस दुकान पर चाय पीने बैठे, उसके मालिक मुन्ना जी साहित्यप्रेमी निकले. हर रोज दुकान बंद करने के बाद बाजार के जो लोग स्टेशन के पास गांधी चबूतरे पर बैठ कर साहित्यिक बहस करते हैं, उनमें मुन्नाजी भी हैं. हमारे आने पर वे दुकान छोड़ कर हमारे पास चाय पीने बैठ गये. बात छिड़ गयी साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने की. मैंने उनसे ही पूछा कि ऐसे में आप क्या करते?
उनका जवाब था कि जो बच्चा तीन साल दिन-रात एक कर डिग्री हासिल करेगा, वह उसे किसी कीमत पर नहीं लौटायेगा. मगर जिसको फोकट में डिग्री मिल गयी है, वह उसका मूल्य क्या समझेगा? मुझे लगा कि एक आम आदमी इस पूरे प्रकरण को किस नजरिये से देखता है, उसका परिचय मिल गया.
यही स्वर विजयादशमी के उपलक्ष्य में आयोजित काशी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों की विचारगोष्ठी में भी उभरा. उसमें मैं देर से शामिल हुआ, मगर सबका कहना यही था कि साहित्य अकादमी जैसे पूर्ण लोकतांत्रिक राष्ट्रीय संगठन को वे ही अभी बदनाम कर रहे हैं, जिन्होंने जोड़-तोड़ से उसका लाभ उठाया और ‘एक्स-फैक्टर’ से पुरस्कार हथियाया. मगर हिंदी समाज उनसे यह हिसाब मांगेगा कि इतने दिनों में एक से एक कांड हुए, उनका विवेक क्यों सो रहा था? वहां के साहित्यकार इसे साहित्य-साधना का अपमान और चुके हुए लोगों की गंदी राजनीति करार दे रहे थे.
वक्ताओं ने आवेश में आकर कई मुहावरों का भी प्रयोग किया-‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’, ‘रोये का मन तो आंख में गड़ी खुट्टी’, ‘सौ-सौ चूहा खाके बिल्ली चली हज को’ आदि. कुछ ने तो यहां तक कहा कि एक समिति गठित कर लौटाये गये पुरस्कारों वाली पुस्तकों की फिर से समीक्षा की जाये. निश्चय ही यह अतिवादी आक्रोश था, मगर देश की साहित्यिक बिरादरी यहां तक सोचने लगी है, यह संज्ञान में लाना जरूरी है.
यह भी प्रश्न उठने लगा है कि हिंदी के सारे पुरस्कार दिल्ली और उसके आसपास कुंडली मार कर बैठे जुगाड़ू साहित्यकार ही कैसे हथिया लेते हैं. जहां तक उनके लेखन का सवाल है, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का एक काव्यप्रेमी पाठक बड़ी ईमानदारी से स्वीकारता है कि ‘पत्रिकाओं में सबसे पहले कविताओं को ढूंढता हूं, मगर अफसोस, अब उन्हें ढूंढते हुए डर लगने लगा है. और यदि नाम चर्चित हो, तो डर का अनुपात भी बढ़ जाता है.’
वैसे तो अन्य भाषाओं में भी यह सामान्य बात है, मगर वृहत्तर समाज होने के कारण हिंदी में बहुत कम ही पुरस्कार केवल योग्यता के आधार पर मिल पाते हैं. पुरस्कार के साथ राजनीति का चोली-दामन का रिश्ता बड़ा पुराना है.
वर्षों पहले हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार उपेंद्रनाथ अश्क ने दुखी होकर एक पत्र में लिखा था- ‘हिंदी में भयंकर गुटबाजी रही है. मैं सभी विधाओं में लिखता हूं. मेरे पास कभी इतना वक्त नहीं रहा कि मैं आलोचकों को पटाऊं अथवा भगवती प्रसाद वाजपेयी, भगवती चरण वर्मा या अज्ञेय की तरह गुट बनाऊं. यशपाल को पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ का बल प्राप्त था. मेरी पीठ पर किसी गुट अथवा पार्टी का हाथ नहीं रहा. मैंने उन लोगों की परवाह नहीं की. उन्होंने मेरी नहीं की.
ऐसा ही होता है.’ यह शिकायत अकसर आती है कि सरकारी विभागों में या संगठनों में कार्यरत या प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े या किसी विश्वविद्यालय या फिर प्रकाशक की दुकान पर काम करनेवाले अधिकारियों-कर्मचारियों को जुगाड़ू लोग बड़ी चतुराई से बड़ा साहित्यकार बना देते हैं और जो सचमुच साहित्य-साधना कर रहे हैं,वे उपेक्षित रह जाते हैं.
इसीलिए अधिकतर पुरस्कार-सम्मान के प्रति लोगों का विश्वास नहीं रह गया है. किसी प्रकार का पुरस्कार, अलंकरण या सम्मान पानेवाला व्यक्ति तुरंत शक के घेरे में आ जाता है. उसे जितना सम्मान मिलता है, उससे कहीं ज्यादा अपमान उसके हिस्से आता है. यही देख कर प्रसिद्ध गीतकार रमानाथ अवस्थी, जो दिल्ली के आकाशवाणी भवन में केंद्रीय पद पर रह कर भी साहित्यिक पुरस्कारों से आजीवन वंचित रहे, कुढ़के गाया-‘सम्मान सहित हम सब कितने अपमानित हैं’.
उनकी खुद्दारी ने उन्हें कभी नेताओं के तलवे चाटने की इजाजत नहीं दी और वे काव्यप्रेमी जनता के बीच गीत गाते-गाते चले गये. यह भी अधम कोटि की गुटबंदी का ही परिणाम है कि शंभूनाथ सिंह, वीरेंद्र मिश्र, रमेश रंजक, शिवबहादुर सिंह भदौरिया जैसे तमाम गीतकारों के गीतसंग्रह आये, मगर साहित्य अकादमी उस ओर आंख मूंदे रही. साहित्य अकादमी अब उनकी छत्रछाया से मुक्त होकर खुली धूप में चलना चाहती है, जो उन्हें दुख दे रहा है.
उन्हें यह भी दुख दे रहा है कि मानव संसाधन मंत्रालय उनके वर्चस्व को समाप्त कर पूरे पाठ्यक्रमों, पुस्तकों और पुस्तकालय समितियों में आमूल परिवर्तन कर रहा है. इससे उनकी बीसों उंगलियों को घी में रहने की सुविधा बंद हो जायेगी. असली दर्द तो यहां हो रहा है और बहाना है अखलाक का.
साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटा कर सुर्खियों में आनेवाले साहित्यकारों की कलम की स्याही सूख गयी है, वरना वे अपनी वैचारिक असहमति को अपने लेखन से व्यक्त करते. पूरे मुगलकाल के दौरान लिखा गया भक्तिकाव्य इसका भव्य उदाहरण है. विचारणीय प्रश्न यह है कि यह नाटक बिहार के चुनाव के समय ही क्यों शुरू हुआ?
क्या इसके पीछे भी कोई अंतरराष्ट्रीय साजिश है, जिसमें आसानी से प्रभाव में आनेवाले कुछ सत्ताप्रिय साहित्यकारों को शतरंज की गोटी बना कर, विश्व राजनीति में तेजी से उभर रहे भारत को धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु और मानवाधिकार-हंता देश घोषित कर इसे पीछे धकेल दिया जाये. इसलिए यह दौर अत्यंत संवेदनशील है और साहित्यकार बिरादरी का एक भी अविवेकी निर्णय या तटस्थता से मारा गया पद्मासन तेजी से बढ़ते भारत के कदमों के लिए बाधादौड़ साबित हो सकता है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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