Table of Contents
Shibu Soren : शिबू सोरेन ने झारखंड अलग राज्य के लिए बड़ा आंदोलन चलाया और आदिवासियों को अपने हक और अधिकारों के लिए जागरूक किया. उन्होंने ना सिर्फ आदिवासियों के हक के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि वे हर झारखंडी का हित चाहते थे. इसी वजह से वे ना सिर्फ आदिवासियों के बल्कि गैर आदिवासियों के भी सर्वमान्य नेता बने.
1995 में हुआ था झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद का गठन
झारखंड अलग राज्य की मांग जब बहुत तेज हो गई तो केंद्र सरकार और बिहार सरकार ने झारखंड के लोगों की मांग का सम्मान करते हुए एक राजनीतिक समझौते और प्रशासनिक समाधान के रूप में झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद का गठन किया, ताकि झारखंड के लोगों को आत्मनिर्णय अधिकार मिले और उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा किया जा सके.झारखंड के आदिवासी यह चाहते थे कि उनके संसाधनों का उपयोग उनके हित में हो और उनकी संस्कृति की रक्षा हो, इसके लिए वे अपने तरीके से निर्णय ले पाएं, इसके लिए अलग राज्य की जरूरत थी, लेकिन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री राज्य लालू यादव इसके लिए तैयार नहीं थे, लेकिन गुरुजी के काफी संघर्ष के बाद 1995 में झारखंड क्षेत्र स्वायत्तशासी परिषद का गठन हुआ, जो राज्य निर्माण के क्षेत्र में एक बड़ा कदम था. यह पहली बार था जब झारखंड के लोगों को उनकी प्रशासनिक व्यवस्था में अधिकार और भागीदारी दी गई थी.
स्वायत्तशासी परिषद के गठन के लिए रातभर बैठक चली थी : रतन तिर्की
झारखंड आंदोलन की लड़ाई में सक्रिय योगदान देने वाले रतन तिर्की बताते हैं कि स्वायत्तशासी परिषद के गठन के लिए रात भर बैठक चली थी. यह बैठक कांग्रेस नेता राजेश पायलट के घर में 1993 में बैठक हुई थी. यह बैठक रातभर चली थी, इसमें शिबू सोरेन, साइमन मरांडी, प्रभाकर तिर्की, लालू यादव, रामदयाल मुंडा, स्टीफन मरांडी, सुधीर महतो,सूरज मंडल, प्रभाकर तिर्की, रतन तिर्की,अल्फ्रेड एक्का,सूर्य सिंह बेसरा, संजय बसु मल्लिक, देवशरण भगत, विनोद भगत,जोय बाखला, राजेंद्र मेहता एवं अन्य लोग उपस्थित थे. और मैं भी बैठक में शामिल था और परिषद के गठन के दस्तावेज पर साइन किया था. यह शिबू सोरेन के जीवन की ऐतिहासिक उपलब्धि थी, क्योंकि इस परिषद के गठन के बाद ही राज्य गठन का रास्ता खुला. लालू यादव स्वशासी परिषद देना नहीं चाहते थे, वे चाहते थे कि झारखंड क्षेत्र विकास परिषद का गठन हो.
2008 में परिसीमन का विरोध किया

शिबू सोरेन ने 2008 में झारखंड में परिसीमन का विरोध किया था और उन्होंने कहा था कि परिसीमन से झारखंड के आदिवासियों की राजनीतिक ताकत कमजोर हो जाएगी. उनके मुखर विरोध की वजह से ही 2008 में झारखंड में परिसीमन नहीं हुआ, जबकि देश भर में परिसीमन हुआ. रतन तिर्की बताते हैं कि परिसीमन का विरोध और उसके बाद परिसीमन का ना होना गुरुजी के आंदोलन की बड़ी उपलब्धि है. 2007 में परिसीमन के आंदोलन में गुरुजी शिबू सोरेन की अगुवाई में दो महीने तक दिल्ली में आंदोलन किया गया. जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन और संसद मार्च भी किया गया. उस वक्त यूपीए सरकार की अध्यक्ष सोनिया गांधी, कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, आदिवासी मामलों के मंत्री और गृहमंत्री प्रणब मुखर्जी सबसे मुलाकात करके झारखंड को परीसीमन से मुक्त रखने का आग्रह किया किया और आंदोलन का असर ऐसा हुआ कि केंद्र सरकार ने वर्ष 2026 तक झारखंड को परीसीमन से मुक्त रखने का निर्णय किया.
विभिन्न विषयों पर एक्सप्लेनर पढ़ने के लिए क्लिक करें
गुरुजी के कद का दूसरा नेता झारखंड में नहीं है : प्रकाश टेकरीवाल
गुरुजी शिबू सोरेन के करीबी मित्र प्रकाश टेकरीवाल का कहना है कि उनके जाने से झारखंड की राजनीति को बड़ा नुकसान हुआ है, क्योंकि उनके कद का कोई दूसरा नेता यहां नहीं है. वे बहुत ही आत्मीय व्यक्ति थे. मैं जब भी उनसे मिलता था, वे मेरा हाथ पकड़कर ही मुझसे बात करते थे. वे बहुत प्रेम से मिलते थे. मैं उनसे मिलने दिल्ली गया था, लेकिन वे काफी बीमार थे. हेमंत सोरेन से मुलाकात हुई थी. जो लोग ये कहते हैं कि वे सिर्फ आदिवासियों की सोचते थे, वे बहुत गलत हैं, क्योंकि गुरुजी हर झारखंडवासी को अपना मानते थे, फिर चाहे वो आदिवासी हो या गैर आदिवासी.
झारखंड की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया है: प्रभाकर तिर्की
झारखंड आंदोलन में गुरुजी के करीबी सहयोगी रहे प्रभाकर तिर्की कहते हैं कि गुरुजी का जाना एक बड़े शून्य को जन्म देता है. शिबू सोरेन का व्यक्तित्व कैसा था यह उनका काम बताता है. उन्होंने महाजनी का विरोध करके आदिवासियों में जागरूकता लाई. यही आगे जाकर राजनीतिक आंदोलन बना. झारखंड का जो आंदोलन था, उसे धक्का लगा है. एक बड़ा नुकसान हुआ है. यहां के लोगों के लिए भी यह बड़ी क्षति है. मैं उनके साथ लंबे तक रहा, चाहें क्षेत्र में जाना हो, मीटिंग हो, दिल्ली जाना हो मैं उनके साथ रहा. जेएमएम की नीतियों को बनाने में हम साथ थे. शिबू सोरेन जेएमएम की जड़ थे, उनके जैसा कोई दूसरा नेता नहीं है. यह बड़ी क्षति है, जो पार्टी के लिए बड़ी चुनौती है. शिबू सोरेन ने अपना पूरा जीवन आंदोलन को दिया, राजनीति तो बाद की चीज है. वे हमारे लिए मील का पत्थर थे, उनके आदर्श को हमेशा याद करेंगे. शिबू सोरेन हर किसी को साथ लेकर चलने वाले नेता थे, चाहे आदिवासी हो या गैर आदिवासी. उन्होंने पार्टी में सबको जगह दी. सूरज मंडल पहले गैर आदिवासी विधायक बने. अभी भी महुआ माजी सांसद हैं, तो यह उनकी खासियत थी.
आदिवासियों के सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन की प्रेरणा देने वाली 5 कहानियां
दिशोम गुरु शिबू सोरेन नहीं रहे, 81 साल की उम्र में हुआ निधन, झारखंड में शोक की लहर
समाज सुधारक से सांसद, विधायक, मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री, ऐसी रही शिबू सोरेन की जीवन यात्रा