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जन सहभागिता से ही वनों का संरक्षण

आरपी सिंह अभियान निदेशक, झारखंड कौशल विकास मिशन, रांची झारखंड मूलत: वन आच्छादित राज्य है, जहां वन 29 प्रतिशत भू-भाग में फैला हुआ है. यहां के जंगलों और वादियों की सुंदरता देखते ही बनती है. जहां एक ओर जमीन के ऊपर प्राकृतिक साल व मिश्रित प्रजाति के जंगल शोभायमान हैं, वहीं उनके गर्भ में बेशकीमती […]

आरपी सिंह
अभियान निदेशक, झारखंड कौशल विकास मिशन, रांची
झारखंड मूलत: वन आच्छादित राज्य है, जहां वन 29 प्रतिशत भू-भाग में फैला हुआ है. यहां के जंगलों और वादियों की सुंदरता देखते ही बनती है. जहां एक ओर जमीन के ऊपर प्राकृतिक साल व मिश्रित प्रजाति के जंगल शोभायमान हैं, वहीं उनके गर्भ में बेशकीमती खनिज संपदा भरी पड़ी है.
खनिज संपदा और वनों के संदर्भ में झारखंड एक बेमिसाल राज्य है, जिसमें विकास की असीम संभावनाएं हैं, बशर्ते कि इनमें बेहतर तालमेल हो.
स्वतंत्रता के पश्चात 80 व 90 के दशक में यहां के जंगलों के संरक्षण और संवर्धन में जन सहभागिता संयुक्त वन प्रबंधन के माध्यम से दृष्टिगोचर होने लगी. वनों के संरक्षण के सरकारी प्रयास विफल होने के फलस्वरूप यह पाया गया कि जहां की जनता अपने वनों की सुरक्षा के प्रति जितनी जवाबदेही थी, वहां के जंगल बच पाये और उनमें उत्तरोतर विकास हुआ.
जंगलों के बीच स्थित गांवों में वन विभाग की ओर से हजारों वन समितियां गठित की गयी और उन्हें अपने वनों को बचाने का जिम्मा सौंपा गया. आज आप जब राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजरते हैं, तो उसके इर्द- गिर्द नंगी पहाड़ियां दिखाई पड़ती है, जो यह बतलाती है कि उनका दोहन आवश्यकता से अधिक हुआ है.
अब समय आ गया है कि गांव और आम जनता को उन नंगी पहाड़ियों, खाली वन भूमि को अपनाना होगा और सामाजिक उत्तरदायित्व के अंतर्गत उन्हें संरक्षित करते हुए पुनर्जीवित करने के प्रयास करने होंगे. वैसे अनेकों सामाजिक और सिविल सोसाइटी के संगठन हैं, जो कारगर तरीके से इन नंगी पहाड़ियों व बेजान पड़ी वन भूमि को नयी जान दे सकते हैं.
पूरे विश्व का अध्ययन बताता है कि जहां की जनता जागरूक रही है, वहां के वन बचाये गये हैं. यदि कोई सामाजिक संगठन सरकार द्वारा निर्धारित मापदंड के अधन इन वनों को बचाने का प्रयास करता है, तो दिक्कतें कहां है? आपको उन्हें शासकीय सहयोग देना है और आवश्यक आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने होंगे. आम आदमी भी आज अपने वनों के संरक्षण के लिए आर्थिक मदद देने को तैयार है. कोई यह पहल तो करे. हम चाहें तो भांतिवन, स्मिति वन, जैव विविधता पार्क इत्यादि जन सहयोग से खड़े कर सकते हैं. इसमें जहां एक ओर पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा, वहीं दूसरी ओर रोजगार के आयाम भी पैदा होंगे.
वनों के संरक्षण व संवर्धन के लिए सरकारी संसाधन सीमित हैं.हमारी नीयत भी अपने वनों के प्रति ईमानदार नहीं है. हर कोई इनसे फायदे तो पूरे लेना चाहता है, परंतु उन्हें संरक्षण देने के लिए आगे आना नहीं चाहता. यह एक कटु सत्य है. इसलिए आवश्यकता है कि इन बेजुवान जंगलों के लिए हम सब खड़े हों और उन्हें बचाने का एक मिला-जुला सार्थक प्रयास करें. झारखंड तभी रहेगा, जब यहां के जंगल, वन्यप्राणी और उसके निवासी के बीच बेहतर समन्वय रहेगा. और यह संभव हो सकता है जन सहभागिता के माध्यम से.
(लेखक भारतीय वन सेवा के अधिकारी हैं. झारखंड कौशल विकास मिशन रांची के अभियान निदेशक हैं.)
Prabhat Khabar Digital Desk
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