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त्वरित टिप्पणी : धीरे-धीरे देश भर में अपने पांव पसार रही भाजपा योगेंद्र यादव राजनीतिक विश्लेषक एवं संयोजक, स्वराज अभियान पांच राज्यों के चुनाव नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के िवस्तार और कांग्रेस के िसकुड़ने का संकेत दे रहे हैं. असम में पहली बार भाजपा की जीत से उत्तर पूर्व में उसकी पैठ का रास्ता […]

त्वरित टिप्पणी : धीरे-धीरे देश भर में अपने पांव पसार रही भाजपा
योगेंद्र यादव
राजनीतिक विश्लेषक एवं संयोजक, स्वराज अभियान
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के िवस्तार और कांग्रेस के िसकुड़ने का संकेत दे रहे हैं. असम में पहली बार भाजपा की जीत से उत्तर पूर्व में उसकी पैठ का रास्ता खुल गया है. पढ़िए योग्ेंद्र यादव का िवश्लेषण.
शायद टीवी का मिजाज ही कुछ ऐसा है. बिहार विधानसभा चुनाव के बाद जो बीजेपी गर्त में चली गयी थी, वह असम चुनाव के बाद अचानक आसमान पर पहुंच गयी है. कभी थू-थू, तो कभी बल्ले-बल्ले. टीवी के हांफते एंकरों की इस उतार-चढ़ाव से परे राजनीति का असली नक्शा क्या है?
इसमें कोई शक नहीं कि चुनावी जीत-हार के बीच भाजपा धीरे-धीरे देश भर में अपने पांव पसार रही है. असम की जीत जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण है बंगाल और केरल में भाजपा का 10 फीसदी से ज्यादा वोट पाना. हालांकि, इससे नरेंद्र मोदी का जादू साबित नहीं होता.
मोदी सरकार की लोकप्रियता के ग्राफ का उतार शुरू हो चुका है. हालांकि, इसका सही पता अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में लगेगा. यूं भी किसी एक राज्य के विधानसभा चुनाव का परिणाम दूसरे राज्य पर असर नहीं डालता है. नरेंद्र मोदी को एकमात्र तुरुप की तरह इस्तेमाल न करके ही बीजेपी इस क्षेत्रीय लड़ाई में सफलता हासिल कर पायी है. तमिलनाडु और देश के कई अन्य राज्यों में बीजेपी को अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए अभी मशक्कत करनी होगी. हां, इतना जरूर है कि बीजेपी धीरे-धीरे राष्ट्रव्यापी पार्टी का कांग्रेस वाला दर्जा हथियाती जा रही है.
अगर इन चुनावी नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति के लिए कोई स्पष्ट और ठोस संकेत है, तो वह है कांग्रेस का पराभव. वर्ष 2014 से हर चुनाव कांग्रेस के डूबने के संकेत दे रहा है. केरल में कांग्रेस की हार को सामान्य सत्तापलट कहा जा सकता है. असम में 15 साल के बाद वोटर की थकावट का तर्क माना जा सकता है, लेकिन उसी सामान्य सत्तापलट के हिसाब से कांग्रेस को तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में सफलता मिलनी चाहिए थी.
ऐसा नहीं हुआ. दरअसल, हर राज्य में कांग्रेस अपने सहयोगियों पर बोझ साबित हुई. केरल और तमिलनाडु में वह अपने सहयोगियों से कम सफल हुई. बंगाल में उसे लेफ्ट से ज्यादा सीटें आ गयीं, लेकिन वह अपने वोट को लेफ्ट को हस्तांतरित करने में असफल हुई. स्पष्ट है कि गंठजोड़ की राजनीति में कांग्रेस एक बोझ बन रही है.
अगर कांग्रेस तेजी से सिकुड़ रही है, तो इस खाली स्थान को कौन भरेगा? इस बड़े सवाल का कोई साफ उत्तर इन चुनावी नतीजों से नहीं मिलता है. कांग्रेस और बीजेपी के विकल्प में उभरे बड़े विचार शनै:-शनै: लुप्त हो रहे हैं. वामपंथी दल केरल में भले ही जीत गये हों, लेकिन केरल में उनकी जीत और बंगाल में उनकी हार, दोनों का वामपंथी विचार से कोई लेना-देना नहीं है.
वामपंथी पार्टियां इस पूंजीवादी लोकतंत्र की सामान्य पार्टियों में एक और पार्टी बन गयी हैं. उधर, अन्नाद्रमुक की जीत के बाद पूजा-पाठ और पूरे चुनाव
प्रचार से यह स्पष्ट है कि द्रमुक और अन्नाद्रमुक दोनों का द्रविड़ आंदोलन की विरासत से कोई लेना-देना नहीं है. द्रविड़ आंदोलन का नास्तिकवाद, तर्कशीलता, जाति उन्मूलन का आग्रह- ये सब अब किसी स्वप्नलोक की बातें लगती हैं.
उधर, असम में असम गण परिषद चुनाव भले ही जीत गयी हो, लेकिन असमिया अस्मिता के अपने आग्रह को छोड़ कर. 80 के दशक में आप्रवास की चिंता को उठानेवाली यह धारा आज तक उस सवाल का जवाब नहीं दे पायी है. अगर आज असम गण परिषद को बीजेपी की गोद में बैठने पर मजबूर होना पड़ रहा है, तो यह उसकी राजनीति की पराजय है.
यानी राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता पक्ष तो है, लेकिन विपक्ष की जगह खाली होती जा रही है. वर्चस्व का विचार तो है, लेकिन वैकल्पिक विचार की जगह शून्य नजर आ रही है. सवाल यह है कि इस शून्य को गंठजोड़ की तिकड़म से भरा जायेगा या एक सच्चे अर्थ में वैकल्पिक राजनीति के द्वारा? इस सवाल का उत्तर देने के लिए आपको टीवी बंद करके सोचना होगा. रवीश कुमार ठीक ही कहते हैं- टीवी कम देखा कीजिए.
Prabhat Khabar Digital Desk
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