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कविता [email protected] परिचय कविता चर्चित युवा कथाकार हैं. मेरी नाप के कपड़े, उलटबांसी, नदी जो अब भी बहती है नामक कहानी संग्रह और मेरा पता कोई और है नामक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. ‘मेरी नाप के कपड़े’ कहानी के लिए अमृतलाल नागर कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार प्राप्त कर चुकी कविता ने मैं हंस नहीं पढ़ता, […]

कविता
परिचय
कविता चर्चित युवा कथाकार हैं. मेरी नाप के कपड़े, उलटबांसी, नदी जो अब भी बहती है नामक कहानी संग्रह और मेरा पता कोई और है नामक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. ‘मेरी नाप के कपड़े’ कहानी के लिए अमृतलाल नागर कहानी प्रतियोगिता पुरस्कार प्राप्त कर चुकी कविता ने मैं हंस नहीं पढ़ता, वह सुबह कभी तो आयेगी, अब वे वहां नहीं रहते, जवाब दो विक्रमादित्य का संपादन भी किया है.
कहानियों की उसकी जिद है कि कभी थमती ही नहीं और कहानियां हैं कि मेरे पास ठहरती ही नहीं. उसे अनसुना करती हुई सोचती हूं यह, रात और कहानियों का वास्ता बड़ा अजीब-सा है. कहानियां रात के पीछे भागती हैं या रात कहानियों के साथ जागती हैं, बड़ा घालमेल है न यह.
कहती हूं एक था राजकुमार… और ठिठक जाती हूं… एक थी परी… और बिदक जाती हूं. एक था जंगल… और उसमें गुम हो जाती हूं… उहूं… यह भी नहीं… दैत्य, जानवर… न… एक था राजा, एक थी रानी… और कह कर खुद ठहरूं-हिचकूं कि वहीं टोक देती है, ‘‘यह तो बहुत पुरानी कहानी हुई, राजा-रानी अब कहीं होते हैं क्या?’’ फिर…? क्या सुनाऊं उसे, जो बिलकुल उसके लिए हो… क्या सुनाऊं, जो उसे अपनी-सी लगे और जिसकी सीख भी सीख-सी दिखती न हो, पर हो सचमुच की जिंदगी में भी खूब कारगर…?
यह कहानियां सुनाने का चलन आखिर शुरू किया, तो किसने किया, मैं मन-ही-मन झुंझलाती हूं. कहानियों को भोली-भाली, मासूम-सी नींद न आने पर ली जानेवाली मीठी खुराकोंवाली मीठी-मीठी नींद बुलानेवाली, नन्ही-मुन्नी गोलियां समझने की भूल करना हद दरजे की बेवकूफी है.
खास कर अपने नन्हें और नादान बच्चों की खातिर. यह एक लत है, जो आपको कहीं का नहीं छोड़ती और पकड़ कब लेती है, यह पता ही नहीं चलता. यह लत हद से ज्यादा खतरनाक है… फिर वे जिंदगीभर कल्पनाजीवी होते हैं या फिर आदर्शवादी… या फिर कहानियों के राजकुमार-राजकुमारियां… जिंदगीभर प्रतीक्षा करती कोई सिंड्रेला या उसकी जूतियां ले कर उसे तलाशता-ढूंढ़ता कोई राजकुमार… असली जिंदगी में इसके जैसा कोई होता ही नहीं.
कहानियों पर भी यह टीप जरूरी है, ‘‘केवल वयस्कों के लिए…’’
मुझे टोकती है वो, ‘कहानी…’ सुना रही हूं, सोचने तो दो… दम लेने दो जरा… ‘‘इत्ता भी क्या सोचना, पापा तो रोज सुना देते थे, जल्दी से भी.’’ मैं कहती नहीं, पर सोचती हूं… यह हर तरह की ऊंच-नीच, गलत-सही सोचने-समझाने का जिम्मा हम माएं ही क्यों उठा लेती हैं, पर प्रत्यक्षतः (साफ-साफ) कहती हूं तो सिर्फ इतना, ‘‘मैं पापा नहीं हूं न बेटा…’’
मेरी आंखों में चमक है कुछ शायद, वह प्रतीक्षा में उकड़ूं लेट गयी है. आंखों में ढेर सारी उत्सुकता और भोलापन लिये हुए. अब असमंजस का वक्त नहीं रह गया. चुनने का भी नहीं, सोचने का तो बिल्कुल भी नहीं. जो कुछ भी हो मन में बस कह देना है वही… बगैर कुछ सोचे-समझे… एक आड़ ढूंढ़ना चाहती हूं… एक खोल तलाशना कि भीतर का कुछ भी जमा बाहर न आये, इस कहानी में तो बिल्कुल भी नहीं, किसी घुसपैठिये-सा… कि मैं न दिखूं कहीं से इतनी-सी भी…
कहती हूं, एक चिड़ा था, एक चिड़ी, मतलब मेल और फीमेल चिड़िया… उसकी आंखों की चमक थोड़ा और इतराती है. ‘‘मुझे चिड़िया बहुत पसंद है.’’ मुझे भी… दोनों बहुत प्यार से साथ-साथ रहते थे… हूं… मन में न जाने क्या उठता है, पूछती हूं उससे… मैं चिड़िया बन जाऊं… उसकी सारी बात मैं कहूं? मजा आयेगा न तुम्हें? किसी अप्रत्याशित मोड़ की प्रतीक्षा में उसकी बड़ी-बड़ी अंखियां मुस्कुरा पड़ती हैं. मैं उसकी इस मुस्कुराहट को हामी समझ लेती हूं. और नहीं आया तो… आप तो जानती हैं न मां को कहानी कहने नहीं आता, बिल्कुल भी नहीं… ‘‘फिर भी चलेगा.’’ ‘‘मां ही तो कहती है कि कोशिश जरूर करनी चाहिए… हिम्मत हार जाना बुरी बात है.’’ मैं मुस्कुरा देती हूं.
चिड़े ने चिड़ी से… उफ्फ! मतलब मुझसे कहा, ‘‘हम बादलों के देश चलते हैं, इंद्रधनुष के सतरंगे गांव…’’ उतना ऊपर, मेरे कमजोर पंख थरथराये थे… मैं अपने हाथों को हारे हुए डैनों में तब्दील करती हूं… आंखों में डर और भय भरती हूं…
‘फिर…?’
फिर क्या… उसके साथ होने के हौसले ने मेरे कमजोर परों में भी ताकत भर दी थी. हम लगातार उड़ते रहे और पहुंच ही गये थे, बादलों के देश… तिनका-दुनका; घर द्वार सब पीछे छोड़े… साथी-संगी सब कहीं बहुत नीचे… रोशनी और बादलों की लुकाछिपी में हम हमजोली होते…
सूरज की सुनहरी रोशन किरणों से जिंदगी जगमगा उठी थी. घोंसला भी बनाया तो सबसे ऊंचे पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर… धूप, रोशनी, हवा जैसे सब वहां हमारे लिए ही हो अपने सुंदरतम रूप में… खूब स्वच्छ और उज्ज्वल. घोंसले से सिर निकालें तो आसमान अपनी छतरी हमारे सिर पर ताने मिलता… चांद, सूरज पहरेदार बने मिलते हमारे सुखों भरे घोंसले के… हवाएं मीठी-मीठी लोरियां बन कर गुनगुनाती रहती हमारे कानों में… सारी चिड़ियों को रश्क होता… बुजुर्ग कहते-इतना ऊपर भी उड़ना ठीक नहीं… जमीन से करीब होना जरूरी है… और अपनों का साथ भी…
उसकी आंखों की चमक से यकीन था, कहानी ठीक ही चल रही है. इत्मीनान की इक सांस कलेजे में बटोरती हूं… यह जानते हुए भी कि अधिक इत्मीनान हमें लापरवाह बनाता है… हम ढील छोड़ देते हैं अपनी कोशिशों में… हम कमजोर पड़ जाते हैं हौसलों में… होता भी बिल्कुल वैसा ही है, मैं चूकती हूं… और कहानी अपनी मनचाही राह निकल लेती है. अब वह मेरे वश में कहां, समझ, सीख, पकड़ जैसे शब्द अब बेमानी जान पड़ते हैं… अब बगैर सोचे-समझे उसकी उंगलियां थाम कर चलना होगा… अब यह सोचने से भी कुछ नहीं होगा कि…
तुम तो जानती हो न बेटा, जिंदगी में कुछ भी स्थिर नहीं होता… घड़ी की सुइयां निरंतर अगले अंक को पहुंचती हैं…दिन-रात, सुबह-शाम सब अपने दूसरे पड़ाव को… मौसम भी बदलता है हर बार… तो घोंसले के भीतर का मौसम भी रंग बदलने लगा था… चिड़े के मन का भी… सूरज की रोशनी इतनी तेज होने लगी थी कि तन-मन सब झुलसानेवाली… हवाएं अब सुकून बन कर नहीं आती थी, अंधड़ बसाये रहती अपने भीतर… और चांद भी अब शीतलता नहीं देता था… रगों को जकड़ डालनेवाली, जमा देनेवाली ठंड होती. बेटी के चेहरे पर उगी आशंका की रेखाएं मैं पढ़ रही हूं… डर की परछाइयां, जो इधर-उधर उगती आ रही हैं चेहरे पर…
मैं पूछती हूं, ‘‘डर रही हैं आप?’’ वह अपने डर को झुठलाती है और उसका यह झूठ मुझे गुस्सा नहीं दिलाता, हल्की खुशी थमाता है… एक कच्चे वादे-सा यकीन भी…कहानी निकल चुकी है अपनी यात्रा पर और अब उसे रोक लेना मुमकिन नहीं… बस भरोसा रखना होगा कि….
मैं कहानी की उंगलियां थामती हूं. चिड़े के मन में भी न जाने कितने अंधड़ थे, न जाने कितनी तेज चलती हुई बयारें, सौ सूरजों की आग होती उसके हर एक बोल में. आकाश की ऊंचाइयों में जीनेवाला ऊंचाइयों के खतरे गिनाने लगा था. केवल घोंसले में जीने के फायदे बताते हुए उसने मेरे रंगीन परों को अपनी पैनी चोंच से धीरे-धीरे कुतरा था… बच्ची की आंखों में जो था, उसका अनुवाद कोरी उदासी के सिवा और कुछ कहां हो सकता था… वह सफा पढ़ लेने के बाद जवाबदेह और दुखी होती हुई मैंने कहा था कि कहानी यहीं छोड़ देते हैं… ‘‘नहीं… कहानियां अधूरी नहीं छोड़ते, वरना रास्ता भूल जाते हैं…’’
‘‘किसने कहा?’’
‘‘नानी ने!’’
मैं उसे अपने तईं दुरुस्त करती हूं. ‘‘हां जिंदगी के रास्ते…’’ और तब जबकि ‘मैं’ कुतरे परों के साथ घोंसले में जीने की आदी होने लगी थी, वह फिर से मुझे आजाद उड़ान की हिदायतदारीवाली दलीलें सुना रहा था, जिंदगी को घोंसले से बांध लेने की खामियां बताते हुए घोंसले को अपनी उसी नुकीली चोंच से क्षत-विक्षत कर रहा था… घर बंधन है, घर आजादी की उड़ान में बाधक है, वह कमज़ोर बनाता है…. निहायत, कायर और भीरू भी…
‘‘क्षत-विक्षत मतलब?’
‘‘टूटे-फूटे हुए, साबुत नहीं….’’
‘भीरु?’
कमजोर…
‘ओह…’
‘‘फिर चिड़िया ने क्या किया?’’ चिड़ी नहीं जानती कि आहत पंखों से फिर-फिर उड़ पायेगी या नहीं? उसे तो यह भी पता नहीं आकाश की ऊंचाइयों की तरफ अब उससे देखा जायेगा भी या नहीं, या फिर थके-हारे मन और टूटे-फूटे आहत शरीर के साथ जमीन पर औंधे मुंह पड़ी होगी…
‘‘यह चिड़ी बीच में कहां से आयी मॉम? चिड़ी तो आप थीं!’’ नहीं बेटा, कोशिश की पर मैं चिड़ी नहीं हो पायी… उसकी रुआंसी आवाज को मैं भरसक अपने गले लगा संभालती हूं. यह उसे हिम्मत देना है या खुद तलाशना मुझे नहीं पता…
‘‘चिड़ी इतनी ‘वीक’ क्यों है… क्या उसके पास मेरी मम्मा जैसी मां नहीं?’’ मैं हंस देती हूं… शायद नहीं… पर उसके पास इक बिटिया थी… बिल्कुल ‘मां’ जैसी… हम खूब हंसते हैं इस बात पर… क्यों… पता नहीं!
Prabhat Khabar Digital Desk
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