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साल 2016 की खामियों पर चिंतन का है यह समय प्रो राम पुनियानी लेखक-विचारक साल 2016 कई महत्वपूर्ण घटनाओं का गवाह रहा. उनमें से कुछ ने समाज पर गहरा असर डाला. अब जबकि हम सब नये साल के स्वागत की तैयारी में जुटे हैं, विदा होते साल की घटनाओं पर चिंतन करें, ताकि नये साल […]

साल 2016 की खामियों पर चिंतन का है यह समय
प्रो राम पुनियानी
लेखक-विचारक
साल 2016 कई महत्वपूर्ण घटनाओं का गवाह रहा. उनमें से कुछ ने समाज पर गहरा असर डाला. अब जबकि हम सब नये साल के स्वागत की तैयारी में जुटे हैं, विदा होते साल की घटनाओं पर चिंतन करें, ताकि नये साल की बुनियाद बनाने में खामियों को दूर कर सकें. पढ़िए एक टिप्पणी.
हर बीता साल कुछ अच्छी-बुरी यादें दे ही जाता है. यह साल 2016 भी कुछ ऐसा ही रहा. लेकिन, इस साल में देश में कई एेसी घटनाएं घटीं, जिनके चलते इस पर चर्चा और चिंतन जरूरी हो जाता है कि आखिर ऐसी परिस्थितियां क्यों पैदा हुईं. यह इसलिए भी जरूरी है, ताकि हम आगामी नये साल की बुनियाद को बनाने में इन खामियों को दूर सकें. इस साल के शुरुआत में जिस तरह से असहिष्णुता का मुद्दा उठा और समाज में एक प्रकार के विभाजन की रेखा खिंच गयी, वह हमारे लोकतंत्र को बहुत कमजोर करनेवाली थी और एक दूसरे अर्थ में कुछ मजबूत करनेवाली भी. कमजोर करनेवाली इसलिए थी, क्योंकि ऐसी स्थिति पहले की सरकारों में कभी नहीं बनी थी कि सरकार से मतभेद रखना देशद्रोह की श्रेणी में आ जाये. इस तरह की घटनाएं एक लोकतंत्र के स्वास्थ्य को बिगाड़नेवाली होती हैं. वहीं दूसरी आेर, मजबूत करनेवाली इसलिए थी, क्योंकि इससे देश में एक बहस चल पड़ी और इसके मद्देनजर सरकार, देश और राष्ट्रवाद पर अनेकों विचार लोगों के सामने आये. आगामी साल में हमारी उम्मीद यही होगी कि कम-से-कम हम वैचारिक धरातल पर मजबूत होंगे, ताकि फिर से देश के सामाजिक ताने-बाने में असहिष्णुता जैसी बात न पैदा हो.
कुछ अन्य घटनाओं के साथ साल के आखिर में जिस तरह से विमुद्रीकरण हमारे सामने आया, उसने भारत के हर-एक व्यक्ति को प्रभावित किया. खास तौर पर इससे छोटे और गरीब लोगों को ज्यादा परेशानी हुई. इसका परिणाम क्या होगा, यह तो पता नहीं. राजनीतिक दृष्टि से देखें, तो इस साल हमारे लोकतंत्र के ढांचे को काफी आघात पहुंचा, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बनाये रखने में हमारी राजनीति नाकाम रही है.
हमारी सरकार विकास की बात तो करती है और विकास करती तो दिखती है, लेकिन यह तब तक सफल नहीं माना जायेगा, जब तक कि बच्चों का पोषण, भूखे को दो वक्त की रोटी और एक पढ़े-लिखे नौजवान के लिए एक नौकरी का इंतजाम नहीं हो जाता. सरकार से उम्मीद थी कि नयी शिक्षा-नीति के तहत ऐसी शिक्षा-व्यवस्था बनायेगी, जिससे कि इस क्षेत्र की बेहाली दूर हो सकेगी. लेकिन, इस स्तर पर भी हमें निराशा ही हाथ लगी और शिक्षा के मौलिक मानदंड में चौदह साल के बच्चों की शिक्षा में वैसा मूलभूत सुधार नहीं देखने को मिला, जैसा कि मिलना चाहिए था.
सरकार को चाहिए कि इस नये साल में नयी शिक्षा नीति को ऐसा बनाये, जिससे कि उसका सांप्रदायिकीकरण न होने पाये. गांधीजी कहते थे कि सभी धर्मों के बीच के लोगों में बिना किसी मतभेद के एकता होनी चाहिए, ताकि समाज उन्नत कर सके. इस स्तर पर भी हमें नकारात्मकता ही देखने को मिली.
नये साल का स्वागत इस रूप में होना चाहिए कि देश में भावनात्मक आधार वाले मुद्दों को हावी न होने दिया जाये और सामाजिक समरसता को बनाये रखने की हर संभव कोशिश की जाये, तभी हम विकास के उन्नत रास्तों पर चल सकेंगे.
गरीबी, सामाजिक सरोकार, मानव गरिमा, रोजगार आदि से जुड़े मुद्दों को लेकर हमें आगे चलने की जरूरत है, ताकि हमारा लोकतंत्र मजबूत हो सके. इन सबके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना बहुत जरूरी है और खास तौर से सत्ता पक्ष की इच्छाशक्ति ज्यादा मायने रखती है. हालांकि, सत्ता पक्ष से ऐसी उम्मीद कम है, लेकिन विपक्षी पार्टियों से उम्मीद है कि वे अपने धर्मनिरपेक्ष और सकारात्मक विचार से सत्ता पक्ष को दिशा देंगी. गांधीजी के नजरिये से नये साल के लिए मेरा शुभकामना संदेश यही है कि हम सौहार्दपूर्ण तरीके से कंधे-से-कंधा मिला कर आगे बढ़ें. मैं समझता हूं कि यही गांधीजी के लिए सबसे बड़ी आदरांजलि होगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
Prabhat Khabar Digital Desk
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