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My Mati: क्षेत्रीय सिनेमा के जरिए अपनी भाषा को बचाये रखना चाहता हूं : निरंजन कुजूर

लोहरदगा का रहने वाले क्षेत्रीय सिनेमा के निर्देशक निरंजन कुजूर अपनी भाषा को बचाये रखना चाहता हैं. वह अब तक कुड़ुख, हिंदी, चीनी और संताली भाषाओं में फिल्में बना चुके हैं.

रांची, बुधमनी मिंज. झारखंड के लोहरदगा जिले के रहने वाले निरंजन कुजूर क्षेत्रीय सिनेमा के निर्देशक और पटकथा लेखक हैं. वह अब तक कुड़ुख, हिंदी, चीनी और संताली भाषाओं में फिल्में बना चुके हैं. उन्होंने सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट कोलकाता से सिनेमा में ग्रेजुएशन किया. संथाली में म्यूजिक वीडियो बनाया है. साल 2016 में उनकी फिल्म एड़पा काना को बेस्ट ऑडियोग्राफी का नेशनल अवॉर्ड मिला था. पहाड़ा और एड़पा काना उनकी दो ऐसी फिल्में हैं, जो 44वें और 47वें अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया में इंडियन पैनोरमा (गैर फीचर) के लिए चुनी गयी थी. ‘दिबि दुर्गा’ भी उनकी चर्चित फिल्मों में से हैं. ‘दिबि दुर्गा’ संथाली दसई गीत पर आधारित एक गीतचित्र है. वह लगातार क्षेत्रीय सिनेमा में काम कर रहे हैं. पेश है निरंजन कुजूर से बुधमनी मिंज की बातचीत के प्रमुख अंश…

आपने कैसे शुरुआत की?

शुरुआत में कहूं, तो मुझे डॉक्टर बनने का शौक था और मैंने इसके लिए दो साल तैयारी भी की, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मैंने मास कम्युनिकेशन किया. इस दौरान फिल्म मेकिंग में मन रमने लगा. उस समय जानकारी नहीं थी कि हॉलीवुड (अंग्रेजी) और बॉलीवुड (हिंदी) के अलावा भी दूसरी भाषाओं में फिल्में बनती है. इसके बाद कई क्षेत्रीय भाषा की फिल्म देखी. मुझे अपनी मातृभाषा कुड़ुख में फिल्म बनाने का ख्याल आया. शहरों में रहनेवाले कुडूख समुदाय ने लगभग कुड़ुख बोलना छोड़ दिया है. गांवों में भी अब लोग अपनी मातृभाषा को भूलने लगे है. सिनेमा के माध्यम से मैं कोशिश कर रहा हूं कि अपनी मातृभाषा को संजो कर रख सकूं और लोगों को प्रेरित कर संकू क्योंकि यह हमारी पहचान है. कोलकाता से सिनेमा में ग्रेजुएशन किया और फिर अपने कुछ दोस्तों के साथ सिनेमा का काम शुरू किया.

‘एड़पा काना’ का विषय कैसे आपके दिमाग में आया?

एड़पा काना के विषय को लवस्टोरी कह सकते हैं, लेकिन मैंने इसके पीछे की कहानी दूसरी है. आमतौर पर आदिवासी समाज, खासकर झारखंड में कई ऐसे परिवार हैं, जहां अंतरजातीय विवाह देखने को मिलते हैं. वो अपने समाज को अपनाते हैं और परिवार की बात सुनते हैं. लेकिन वो क्या समझते हैं, मैंने उस परिप्रेक्ष्य को दिखाने की कोशिश की है. एक शादीशुदा जोड़ी, जिनकी नयी शादी हुई है, वो कैसे इन चीजों को देखता है. परिवार के साथ कैसे विचारों का टकराव होता है, वो किन परिस्थितियों से गुजरते हैं. वैसे तो अंतरजातीय विवाह पर कई दूसरी भाषाओं में फिल्में बन चुकी हैं. आदिवासियों को लेकर लिखी गई कविताओं, साहित्य और फिल्मों में एक आंदोलित किरदार के तौर पर दिखाया गया है, लेकिन मेरा मकसद था एक ऐसी फिल्म दिखाना, जो हमारे आदिवासी समाज के अंदर की बात करता है. इसमें हम ही केंद्रित रहें और हमारी जीवनशैली, उठना-बैठना और रहन-सहन के बारे में लोग देखें. फिल्म में एक पत्ता तोड़ने का सीन है. दूसरा बिल्ली की परछाई पड़ने के कैसे पिताजी बीमार हो जाते हैं, ऐसा आदिवासी समाज में होता हैं और वही हमने दिखाने की कोशिश की है. आपको देखकर लगेगा कि वो एक अपनी फिल्म है. मुझे लगता है यही कारण की फिल्म को सराहा गया. चीन में भी इसे पसंद किया गया जहां दूसरे देशों की फिल्म प्रदर्शित की जाती है. फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और केरल सरकार ने भी हमें सम्मानित किया. मुझे लगता है कि दर्शकों ने पहली बार उरांव समाज का ऐसा चित्र पर्दे पर देखा होगा.

‘एड़पा काना’ ही इसका टाइटल क्यों चुना?

‘एड़पा काना’ का मतलब होता है घर जाना. उस समय घर वापसी का मुद्दा गर्माया हुआ था. मैं इसे घर वापसी तो नहीं कहूंगा, लेकिन उस समय धर्म को लेकर हिंदू-मुस्लिम डिबेट काफी चल रहा था. उस समय हमारे समाज से मिलती-जुलती ही ये परिस्थिति थी. हमारा किरदार इसमें अपने घर लौटता है. जब वो घर जा रहा है तो पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी की किस तरह का टकराव होता है. यही सोच कर मैंने इसका टाइटल चुना. कईयों ने इसे सराहा और कहा कि इसका विषय टाइटल से फिट बैठता है.

आप लंबे समय से क्षेत्रीय सिनेमा से जुड़े हैं इसमें क्या बदलाव देखते हैं, क्या बदलाव होने चाहिए?

अभी तक मैंने जो देखा है क्षेत्रीय सिनेमा में बहुत कम काम हुआ है. ज्यादातर फिल्में विद्यार्थियों ने बनायी है, जो अपने संस्थान में अपनी भाषा, संस्कृति की पढ़ाई कर रहे हैं. उन्होंने इसे ही फिल्मों में चित्रित किया है. आदिवासी भाषाओं में कुछ चुनिंदा फिल्में बनी हैं. कुछ अच्छी फिल्में संथाली में बनी हैं, लेकिन उसे भी उतनी पहचान नहीं मिली है. मैं खुद क्षेत्रीय फिल्में बनाना चाहता हूं, लेकिन यहां बहुत समस्याएं हैं. सबसे बड़ी बात यहां मार्केट ही नहीं है. एक फिल्म आई है ‘जिनगी जहर गही’. उनसे जुड़े लोगों से बातचीत की कि हम लोगों को कैसे जोड़ सकते हैं? उन्होंने कहा कि हमें ब्लॉक लेवल पर अपनी फिल्में दिखानी होगी. हमें कोई ऐसा तरीका खोजना होगा जिससे हम खुद को स्थापित कर सकें. बारीपदा (उड़ीसा) में एक आदिवासी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया था जिसके पांचवें एडिशन में मैं ज्यूरी मेंबर था. मुझे वहां एक बेहद खूबसूरत अनुभव हुआ क्योंकि वहां कई ऐसी फिल्में दिखायी गयीं, जिसकी तारीफ करने से आप खुद को रोक नहीं पाते. कई फिल्मों को अवॉर्ड्स मिले, जिनमें आदिवासी संस्कृति को बेहद बारीकी से दिखाया था. ऐसे आयोजन होने चाहिए. इससे आप विभिन्न संस्कृतियों और समाज के बारे में समझ पाते हैं जिससे विस्तार मिलता है. झारखंड में ऐसे आयोजन से सकारात्मक बदलाव आयेंगे. आप किसी चीज की शुरुआत करते हैं तो मुश्किलें आती हैं. लेकिन इसके बाद भी जब कोई इस ओर ध्यान नहीं देता तो आप निराश होने लगते हैं. सरकार को सपोर्ट सिस्टम हमें देना होगा, नहीं तो चीजें बिगड़ती चलीं जायेंगी. बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो दूसरे प्रोफेशन में जा रहे हैं क्योंकि वो बेहतर कर रहे हैं लेकिन उन्हें हासिल कुछ नहीं हो रहा है. सिनेमा बनाना किसी एक व्यक्ति का काम नहीं है, बहुत लोग होते हैं. लोगों का इससे घर चलता है तो उसके लिए पैसा जरूरी है.

आपके आनेवाले प्रोजेक्ट्स क्या-क्या हैं?

एक नया एक्सपेरीमेंट करने जा रहा हूं. कम संसाधन में आप कैसे अलग कर सकते हैं कुछ ऐसा. भंडरा के पास नंदिनी नदी है उसके आसपास के गांवों में मैंने शूट किया है. मेरे पास पाइपलाइन में फीचर फिल्म है जिसका टाइटल ‘बीर बाहा’ है. इसकी कहानी ऐसी है कि एक महिला है जिसका पति उसे छोड़कर चला जाता है और नक्सलवाद में शामिल हो जाता है. वो अकेली हो जाती है अपने बच्चे के साथ. वो महिला भी उस जगह को छोड़कर चली जाती है. उसके संघर्ष की कहानी है. साथ ही आपको दूसरे कई परिप्रेक्ष्य इस फिल्म में देखने को मिलेंगे. इस फिल्म को हम हिंदी के साथ-साथ संथाली भाषा में भी बनायेंगे.

Budhmani Minj
Budhmani Minj
Senior Journalist having over 10 years experience in Digital, Print and Electronic Media.Good writing skill in Entertainment Beat. Fellow of Centre for Cultural Resources and Training .

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