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हांगकांग की पहचान का संघर्ष

अविनाश गोडबोले असिस्टेंट प्रोफेसर, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी [email protected] हांगकांग और चीन के बीच चल रहा प्रत्यर्पण संधि विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है. लगातार दस हफ्ते से चल रहे इस विवाद के कई पहलू हैं. साल 1997 के हस्तांतरण समझौते के बाद पुनः चीन का हिस्सा बना हांगकांग पिछले 22 साल इसी डर […]

अविनाश गोडबोले

असिस्टेंट प्रोफेसर, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी

[email protected]

हांगकांग और चीन के बीच चल रहा प्रत्यर्पण संधि विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है. लगातार दस हफ्ते से चल रहे इस विवाद के कई पहलू हैं. साल 1997 के हस्तांतरण समझौते के बाद पुनः चीन का हिस्सा बना हांगकांग पिछले 22 साल इसी डर में था कि गैर-लोकतांत्रिक चीन के साथ वापस मिल जाने पर किसी भी दिन विचारधाराओं का संघर्ष हो सकता है, और वह घड़ी आज हम सबके सामने नजर आ रही है.

दरअसल, यह तय हुआ था कि 1997 से 50 साल तक हांगकांग अपने सारे अधिकार अबाधित रखेगा, सिवाय विदेश नीति और राष्ट्रीय संरक्षण के, जिनकी जिम्मेदारी चीन लेगा.

न्यायिक व्यवस्था, चुनाव व्यवस्था, शिक्षा नीति, कानून, विधि और व्यवस्था और सामान्य नागरिक अधिकार इन विषयों में चीन वैसे तो हस्तक्षेप नहीं कर सकता है, लेकिन एकपक्ष नियंत्रित चीनी व्यवस्था आदतन एक असुरक्षित मानसिकता वाली रचना है, जो हमेशा से ही अन्य प्रणालियों को एक संशयात्मक नजरिये से देखती है. पिछले सात-आठ साल से हांगकांग पर नियंत्रण पाने के नये तरीके खोज रही चीनी सरकार और स्थानीय समाज प्रणाली के बीच की दरार कितनी बड़ी है और कितनी तेजी से बढ़ रही है, यह अब दिखने लगा है.

यह दरार पिछले कई सालों से धीरे-धीरे छिपे तौर पर बढ़ रही थी, जो प्रत्यर्पण संधि के वजह से वह उभर कर सामने आ गयी है. हर एक विवाद का सारांश एक ही रहा है, चीन की अधिकाधिक नियंत्रण की मानसिकता और हांगकांग की अपनी जनतांत्रिक प्रणाली को बचाने की इच्छा.

सबसे पहला विवाद, हांगकांग में इतिहास के पाठ्य पुस्तकों के रूप में उभरा था. चीन में कार्यान्वित किये जा रहे शिक्षा के राष्ट्रीयकरण की नीति हांगकांग में भी लागू हो, यह चीन ने चाहा, लेकिन हांगकांग उसके लिए तैयार नहीं था, क्योंकि शिक्षा प्रणाली उसका आंतरिक मसला है.

चीनी शिक्षा प्रणाली, खासकर उसका इतिहास प्रशिक्षण कम्युनिस्ट पार्टी को केंद्र में रख कर लिखा गया है. इस प्रणाली में, कम्युनिस्ट पार्टी को एक मसीहा के रूप में दिखाया गया है, जिसने चीनी आम जनता को बाह्य आक्रमण और आंतरिक विद्रोह से बचा लिया.

हांगकांग 1997 से पहले से ही प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ओर छोटे-छोटे कदम बढ़ा रहा था और चीन में शामिल होने से पहले ही यह स्पष्ट था कि हांगकांग एक प्रजातांत्रिक देश बनेगा. साल 2017 में होनेवाले मुख्याधिकारी के चुनाव से पहले दूसरा संघर्ष खड़ा हुआ था, जिसमें चीन और हांगकांग आमने-सामने खड़े थे.

हांगकांग हस्तांतरण संधि के अनुसार, मुख्याधिकारी का चुनाव स्थानीय प्रक्रिया के अनुसार होना था, जिसमें नियुक्ति बीजिंग की सहमति से होनी थी. लेकिन, बीजिंग ने चुनाव के उम्मीदवारों को छांट कर अपने उम्मीदवारों को मनोनीत करना चाहा, जो लोकतांत्रिक प्रकिया के खिलाफ था.

तीसरा और सबसे बड़ा विवाद प्रत्यर्पण करार है, जो हांगकांग और चीन के बीच किया जानेवाला है. हांगकांग की जनता मानती है कि बिना सोचे ऐसे किसी समझौते के लिए तैयार होना हांगकांग के लिए खतरा है.

हांगकांग की नेता कैरी लाम यह मानती हैं कि इससे चीन में गुनाह करके हांगकांग में आश्रय लेनेवालों पर नियंत्रण होगा, लेकिन जनता सोचती है कि चीन किसी भी व्यक्ति को गुनहगार बता कर उसके प्रत्यर्पण के लिए हांगकांग पर दबाव डाल सकता है.

हांगकांग के अपने दूसरे प्रश्न भी हैं. शंघाई, शेंजेन और चीन के अन्य महानगरों के सामने हांगकांग कुछ साल से फीका पड़ता दिख रहा है.

शंघाई आर्थिक रूप से तथा शेंजेन तंत्र-ज्ञान के विषय में आगे जा रहा है. चीन से आकर स्थायी रूप से रहनेवाली नयी जनता से वहां सामाजिक बदल भी हो रहे हैं. इसी कारण हांगकांग की जनतांत्रिक व्यवस्था उसकी अस्मिता बन गयी है, जिसे वह बचाना चाहता है.

दूसरी ओर, शी जिनपिंग के नेतृत्व वाली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रवाद का भी सहारा लेते आ रही है, जिससे कि स्थानीय जनता में यह विचार बना रहे कि चीन एक नैसर्गिक तरिके से बढ़नेवाला राष्ट्र है और सारी दुनिया उसके यश और विकास से जलन महसूस कर उसे नियंत्रित करने की साजिश कर रही है. चीन ने हमेशा यह माना है कि जब-जब देश के अंदरूनी मसलों का विदेशी शक्तियाें ने फायदा उठाया है, तब-तब उसे भारी नुकसान हुआ है.

आज भी हांगकांग के बारे में उसकी यही सोच है. साल 2014 में चीन ने हांगकांग के विषय में एक श्वेत पत्रिका जारी की थी, जिसमें यही मुद्दा उछाला गया था. आज भी हांगकांग के लोगों के आंदोलन के नेतृत्व को चीन आतंकी बताता है और उन्हें चीन में अस्थिरता फैलाने की साजिश मानता है.

कई सालों पहले जिस तरह से हांगकांग चीन में पुनः शामिल हुआ था, चीन उसे अपनी कूटनीतिक विजय बता रहा था और उसी तरीके से ताइवान का भी मिलाना चाहता था. इस फॉर्मूले को ‘वन कंट्री टू सिस्टम’ यानी ‘एक देश दो व्यवस्था’ कहा जा रहा था.

लेकिन, आज यह दिख रहा है कि चीन भले ही दो व्यवस्थाओं की बात करे, जब असुविधाजनक परिस्थिति लगे, तब वह ‘दो व्यवस्था’ वाले वादे को भूल कर सिर्फ एक की बात करेगा. इस उदाहरण से ताइवान तो अधिक चौकन्ना हो जायेगा और अलग से नीति अपनायेगा. चीन विश्व सत्ता का सिरमौर बनने से पहले अपना घर संभाले, यही ठीक होगा.

Prabhat Khabar Digital Desk
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