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राजकोषीय घाटे को साधना होगा

डॉ अश्विनी महाजन एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू [email protected] पूर्व वित्त सचिव सुभाष गर्ग ने यह कहा है कि वर्ष 2019-20 का राजकोषीय घाटा बजट अनुमान जीडीपी के 3.4 प्रतिशत की बजाय 4.7 प्रतिशत रहेगा. राजकोषीय घाटे के बढ़ने का बड़ा कारण यह है कि सरकार के प्रत्यक्ष करों और अप्रत्यक्ष करों के अनुमानों से कहीं कम […]

डॉ अश्विनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, डीयू
पूर्व वित्त सचिव सुभाष गर्ग ने यह कहा है कि वर्ष 2019-20 का राजकोषीय घाटा बजट अनुमान जीडीपी के 3.4 प्रतिशत की बजाय 4.7 प्रतिशत रहेगा. राजकोषीय घाटे के बढ़ने का बड़ा कारण यह है कि सरकार के प्रत्यक्ष करों और अप्रत्यक्ष करों के अनुमानों से कहीं कम प्राप्तियां हो रही हैं.
बीते नवंबर में प्रत्यक्ष करों के केंद्रीय बोर्ड के अध्यक्ष ने कहा था कि जब केंद्र सरकार की प्रत्यक्ष करों की प्राप्ति का लक्ष्य 13.35 लाख करोड़ रुपये था, नवंबर तक इसकी प्राप्तियां मात्र छह लाख करोड़ रुपये ही थी और यह संकेत दिया कि प्रत्यक्ष करों की प्राप्तियां काफी कम रह सकती हैं. मात्र काॅरपोरेट करों की दर में कमी के चलते 1.45 लाख करोड़ रुपये का राजस्व का नुकसान हो सकता है. जीएसटी की प्राप्तियां भी बहुत ज्यादा नहीं हैं.
सरकार के बजट में कुल खर्च और उधार को छोड़ सभी प्राप्तियों के अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है. इस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है. यह उधार आम जनता से लिया जाता है, लेकिन इसमें एक बड़ा हिस्सा बैंकों और वित्तीय संस्थानों का भी होता है.
सरकार रिजर्व बैंक के माध्यम से अतिरिक्त नोट छापकर भी घाटे को पूरा करती है. इस प्रक्रिया को घाटे का मौद्रिकीकरण कहते हैं. अधिक राजकोषीय घाटा यानी अधिक मुद्रास्फीति. ज्यादा राजकोषीय घाटा होने पर मौद्रिकृत घाटा बढ़ जाता है और इस कारण करेंसी का विस्तार बढ़ जाता है, जिससे मुद्रास्फीति यानी कीमतों में वृद्धि होती है.
साल 2014 में मोदी सरकार आने के बाद आर्थिक नीति में स्पष्टता लाते हुए सबसे पहला फैसला यह किया गया कि राजकोषीय घाटा एक सीमा में रखा जाये. यूपीए सरकार के अंतिम बजट यानी 2014-15 के अंतरिम बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम ने राजकोषीय घाटे का अनुमान जीडीपी के 4.1 प्रतिशत रखा और उससे पिछले साल यानी 2013-14 का राजकोषीय घाटा कम करके दिखाया गया था.
ऐसे में मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली के सामने एक चुनौती थी कि इस प्रकार की वित्तीय फेरबदल के मद्देनजर राजकोषीय घाटे को कैसे सीमित रखा जा सकता है. जेटली ने चुनौती को स्वीकार किया और 2014-15 के पूर्ण बजट (जुलाई 2014) में उस वर्ष के राजकोषीय घाटे को चिदंबरम के अंतरिम बजट के अनुरूप जीडीपी के 4.1 प्रतिशत पर ही रखा. उसके बाद एनडीए सरकार ने राजकोषीय घाटे को निरंतर घटाते हुए वर्ष 2015-16, 2016-17, 2017-18 और 2018-19 में इसे क्रमशः जीडीपी के 3.9, 3.5, 3.2 और 3.3 प्रतिशत पर रखा.
घाटे पर लगाम लगाने का असर यह हुआ कि कीमतें नियंत्रण में आने लगीं और 2019 तक उपभोक्ता कीमतों में वृद्धि 2018-19 में मात्र 3.4 प्रतिशत तक पहुंच गयी. यह अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत था, क्योंकि इसके कारण ब्याज दरों में घटने का रास्ता साफ हो गया था. गौरतलब है कि नीतिगत ब्याज दर का सीधा संबंध मुद्रास्फीति के साथ होता है. जब मुद्रास्फीति कम होती है, तो रिजर्व बंैक ब्याज दरों को घटाता है.
ब्याज दर घटने से एक ओर निवेश लागत कम हो जाती है, जिससे निवेश बढ़ता है. दूसरी तरफ घरों, कारों और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के लिए उधार सस्ता हो जाता है और इएमआइ घट जाती है. इससे भी अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ती है. यानी कहा जा सकता है कि मोदी सरकार के पहले चरण में एक ओर कीमतें नियंत्रण में रहीं, तो दूसरी तरफ जीडीपी ग्रोथ भी बेहतर हो गयी थी.
जैसा कि अनुमान लगाये जा रहे हैं कि वर्ष 2019-20 का राजकोषीय घाटा जो मात्र 3.4 प्रतिशत अनुमानित था, वह 4.7 प्रतिशत तक पहुंच सकता है. यह भी कयास लगाये जा रहे है कि इससे महंगाई भी बढ़ सकती है.
उधर देश मांग में धीमेपन के चलते लगातार ग्रोथ के घटते अनुमानों से जूझ रहा है. ऐसे में बढ़ते राजकोषीय घाटे के चलते नीतिगत ब्याज दर में कमी की संभावनाएं घटती जा रही हैं, जिसके चलते निवेश और उपभोक्ता मांग में वृद्धि की आशाएं भी घट जायेंगी. ऐसे में वर्ष 2020-21 का बजट प्रस्तुत करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की कोशिश होगी कि राजकोष को किस तरह से संतुलन में रखा जाये और अगले साल राजकोषीय घाटा सीमा में रहे. स्पष्ट है कि धीमेपन के चलते प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की प्राप्ति उम्मीद से कम है और साथ ही निवेश को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से काॅरपोरेट टैक्स की दर घटाने के कारण भी राजस्व कम हो जायेगा. उधर जीएसटी वसूली भी उम्मीद से कम हो रही है, जिसका दोहरा नुकसान केंद्र सरकार को हो रहा है. एक ओर उसका स्वयं का राजस्व कम हो रहा है, दूसरी ओर उसे राज्यों को कम प्राप्ति का भी मुआवजा देना पड़ रहा है.
आज जब काॅर्पोरेट का व्यवसाय बढ़ रहा है, लेकिन काॅर्पोरेट टैक्स की प्राप्तियां नहीं बढ़ रही हैं. इसका कारण यह है कि टेक कंपनियां, ई-कामर्स कंपनियां और बड़ी विदेशी साॅफ्टवेयर कंपनियां टैक्स नहीं देतीं.
ये कंपनियां अपनी आर्थिक ताकत के बल पर डिस्काउंट देते हुए बाजार और डाटा पर कब्जा कर रही हैं. इस प्रकार उनका मूल्यन लगातार बढ़ रहा है. ये कंपनियां आयकर देने से बच रही हैं. विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि ऐसी कंपनियों पर उनके व्यवसाय की मात्रा के आधार पर न्यूनतम टैक्स दर लगाकर उनसे आयकर वसूला जाये. हमें समझना होगा कि लंबे समय से सरकारी खजाने को इससे नुकसान हो रहा है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
Prabhat Khabar Digital Desk
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