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व्यापार की बिसात पर कूटनीति अपने हितों को दें वरीयता

।।वेद प्रताप वैदिक।। वरिष्ठ पत्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यभार संभालने के बाद से विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के मोरचे पर गतिविधियां लगातार तेज हुई हैं. नयी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को पूरा करने और भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बड़ी मात्र में विदेशी निवेश की जरूरत है. इस सिलसिले में […]

।।वेद प्रताप वैदिक।।
वरिष्ठ पत्रकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यभार संभालने के बाद से विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के मोरचे पर गतिविधियां लगातार तेज हुई हैं. नयी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को पूरा करने और भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए बड़ी मात्र में विदेशी निवेश की जरूरत है. इस सिलसिले में मोदी की जापान यात्रा और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा महत्वपूर्ण कदम हैं. पिछले कुछ समय से अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में खटास को दूर करने के प्रयास के तहत मोदी अब राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात कर रहे हैं. आपस में राजनीतिक तनाव के बावजूद भारत, चीन, जापान और अमेरिका एक-दूसरे से व्यापार बढ़ाते रहे हैं. इन देशों के आर्थिक और रणनीतिक संबंधों के उलङो सिरों को समझने की कोशिश में समय की यह प्रस्तुति..

जहां तक अमेरिका, चीन और जापान के संदर्भ में भारत की विदेश नीति का संबंध है, भारत के इन देशों के साथ अलग-अलग तरह के रिश्ते हैं, उनकी पृष्ठभूमि अलग-अलग है और उनके मुद्दे भी अलग-अलग हैं. जहां तक जापान की बात है, तो भारत के साथ जापान के संबंध हमेशा ही सामान्य रहे हैं. इन दोनों देशों में पिछले 65 वर्षो में कोई ऊंच-नीच वाली बात सामने नहीं आयी है. भारत का जापान से भावनात्मक संबंध भी बना रहा है, क्योंकि यह वही जापान है, जिसने गांधी के बाद भारत के सबसे बड़े नेता नेताजी सुभाष चंद्र बोस को शरण दिया था और भारत के स्वाधीनता संग्राम में सहायता की थी. इसके अलावा वह एक बौद्ध देश भी है. वह तकनीकी दृष्टि से अत्यंत उन्नत एवं समृद्ध देश भी है.
जापान से भारत का हल्का-सा विरोध तब हुआ था, जब इंदिरा गांधी ने पोखरण में परमाणु विस्फोट किया था. चूंकि जापान हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बमों का शिकार हो चुका था, इसलिए भारत की परमाणु नीति पर उसे नाराजगी थी. इसके अलावा भारत और जापान के संबंधों में किसी तरह का कोई तनाव नहीं रहा है. इसलिए मैं समझता हूं कि जापान में हमारे प्रधानमंत्री की यात्रा भारतीय विदेश नीति की दृष्टि से कामयाब रही. जापान ने 34 बिलियन डॉलर के निवेश की बात भी कही है. इसके अलावा तकनीक के कई समझौते भी हुए हैं, जिनके तहत बुलेट ट्रेन जैसी चीजें जापान से भारत में दाखिल होंगी.
जहां तक चीन से भारत के संबंधों की बात है, तो सीमा विवाद के साथ-साथ तमाम व्यापारिक रिश्ते भी निभते आये हैं. पिछले दिनों जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा की रूपरेखा तैयार की जा रही थी, तो ऐसा लग रहा था कि जिनपिंग दिल्ली पहुंच कर कोई ठोस और चमत्कारी समझौते करेंगे. यहां तक कहा जा रहा था कि चीन से कम-से-कम सौ बिलियन डॉलर का निवेश होगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पांच साल के लिए चीन ने सिर्फ 20 बिलियन डॉलर के निवेश का प्रस्ताव रखा है, यानी हर साल महज 4 बिलियन डॉलर का निवेश होगा. इसका अर्थ यह हुआ कि चीन का भारत से 70 बिलियन डॉलर का कारोबार हो ही रहा है, जिसके तहत चीन 15-16 बिलियन डॉलर चीन कमा लेता है, यदि इसमें से हर साल 4 बिलियन डॉलर का निवेश करता है, तो यह भी भारत से कमाया हुआ ही पैसा होगा.
चीन के राष्ट्रपति अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों की तुलना में चीन में बहुत शक्तिशाली हैं. वे राष्ट्रपति तो हैं ही, चीन के सैन्य आयोग के अध्यक्ष भी हैं. दुखद यह है कि चीन के सैन्य आयोग के अध्यक्ष होते हुए उनकी भारत यात्रा के दौरान चीन की सेना ने हमारी सीमा पर जो गतिविधियां की है, उसने उनकी यात्रा पर पानी फेर दिया. इस घटनाक्रम का भारत की जनता पर बुरा असर पड़ा है. इसीलिए मोदी को मजबूर होकर इसका उल्लेख करना पड़ा. मैं मानता हूं कि सीमा पर दोनों देशों के सैनिक इधर से उधर घुस जाया करते हैं, यह बड़ी बात नहीं है, क्योंकि सीमा रेखा का निर्धारण अभी नहीं हुआ है. हमारी सीमा पर पहाड़ियां, झीलें, नदियां और जंगल हैं, इसलिए यह पता ही नहीं चलता कि सीमा कहां से कहां तक है. इस बात को इतना तूल देने की जरूरत नहीं थी. यह बात चीनियों को समझनी चाहिए थी, खासकर तब जब जिनपिंग भारत में थे.
कुल मिला कर मुङो ऐसा लगता है कि चीन के साथ जो बातचीत हुई, उसके मद्देनजर दोनों देशों के बीच व्यापार बढ़ना चाहिए, जिससे दोनों को फायदा होगा. जहां तक राजनीतिक समस्याओं का प्रश्न है, चीन न तो भारत को सुरक्षा परिषद् में बिठाने का पक्षधर है, न परमाणु मामले में न्यूक्लियर सप्लायर्स क्लब का सदस्य बनाने के बारे में कोई बात कही है, न ही उसने भारत को यह आश्वस्त किया कि पाकिस्तान की तरफ से जो गलत बातें होती हैं भारत के खिलाफ, उन पर रोक लगाने को लेकर वह कोई कोशिश करेगा. कश्मीर के सवाल पर भी चीन ने भारत का समर्थन नहीं किया. ऐसे में यही लगता है कि शी जिनपिंग की यात्रा का लक्ष्य सिर्फ चीनी व्यापार को बढ़ाना रहा, न कि भारत की किसी प्रकार की मदद करना. इसमें वह सफल भी होगा, इसमें कोई दो राय नहीं है.
फिलहाल नरेंद्र मोदी अमेरिका गये हुए हैं. प्रधानमंत्री मोदी की इस पहली अमेरिका यात्रा में काफी सकारात्मक वातावरण बना हुआ है और वे अपनी तरफ से भी इसे अच्छा बनाने की कोशिश कर रहे हैं. दूसरी बात यह कि संयुक्त राष्ट्र के सत्र के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति बहुत कम ही लोगों से मिलने की कोशिश करते हैं, क्योंकि डेढ़-दो सौ देशों के राष्ट्राध्यक्ष वहां पहुंचते हैं और इतने कम समय में आखिर इतने लोगों से वे कैसे मिल पायेंगे? इसलिए बराक ओबामा नरेंद्र मोदी से न्यूयॉर्क में नहीं मिलेंगे, बल्कि राजधानी वाशिंगटन में मिलेंगे. यह अपने आप में एक बड़ी बात है, लेकिन मुश्किल यह है कि दोनों की बातचीत में आखिर निकलेगा क्या? क्योंकि भारत के मुद्दे और मांगों के पूरे होने के कोई संकेत नहीं हैं.
दूसरी बात यह कि मनमोहन सिंह सरकार ने अमेरिका के साथ जो परमाणु सौदा किया था, उसमें परमाणु दुर्घटना की स्थिति में हर्जाने की शर्तों पर भारत की बात मानने को अमेरिका तैयार नहीं है. मोदी यह बात मनवा सकेंगे, इसमें मुङो संदेह है. इसके अलावा विश्व व्यापार संगठन में अमेरिका भारत पर यह बात लागू करना चाहता है कि हमारे किसानों को दी जानेवाली मदद पर पाबंदी लगे. वह हमारे लोगों को अमेरिका बुलाना तो चाहता है, लेकिन उनको स्थायी वीजा देने को लेकर बहुत टांग अड़ाता है. उन पर इतना ज्यादा टैक्स लगा देता है कि उनके यहां रुकने की सूरत ही नहीं बन पाती. इन सब बातों पर अमेरिका रियायत करेगा या नहीं, यह अभी भी संदेहास्पद है.
अमेरिका का भारत में निवेश मुश्किल से आधा प्रतिशत भी नहीं है. उसका भारत में कुल 23 बिलियन डॉलर का निवेश है, जिसमें से पिछले साल सिर्फ 7 बिलियन डॉलर का निवेश हुआ है. यानी अमेरिका 5-7 बिलियन डॉलर का निवेश करे हर साल भारत में, जहां सौ बिलियन डॉलर का व्यापार है. दूसरी ओर हम 500 बिलियन डॉलर का व्यापार करना चाहते हैं. ऐसे में भारत से कमा कर अमेरिका 20-25 बिलियन डॉलर हर साल ले जाये और महज 5 बिलियन डॉलर का विनिवेश करे, तो यह कौन सी बड़ी बात है!
इससे जुड़ा दूसरा प्रश्न है कि अमेरिका के साथ जो व्यापार होता है, उसमें हवाई जहाज, पनडुब्बी, तोप, मिसाइल, फ्रीज, एयरकंडीशन, कंप्यूटर और बड़े इलेक्ट्रॉनिक सामान शामिल हैं. अब आप गौर करें तो मोदी के साथ इन्हीं कंपनियों के मालिक नाश्ता करनेवाले हैं, जिनके सामान भारत के सिर्फ 10 प्रतिशत लोगों के काम आते हैं. बहुत ही अमीर लोगों के लिए यह सब चीजें हैं. इसका अर्थ यह है कि अमेरिका भारत से नहीं, बल्कि इंडिया के लोगों से जुड़ना चाहता है. सवाल यह है कि मोदी अगर इंडिया के लिए काम करेंगे, तो फिर भारत के जिन लोगों ने वोट देकर उन्हें जिताया है, उनकी सेवा कौन करेगा? अगर अमेरिका के साथ व्यापार बढ़ कर सौ से 500 बिलियन डॉलर हो जाता है, तब भी भारत को कोई खास लाभ नहीं होनेवाला, इससे इंडिया को ही लाभ होगा. इससे सबसे ज्यादा फायदा तो अमेरिका को ही होगा, क्योंकि अमेरिका में चीजों की अनाप-शनाप कीमतें हैं. अगर हम पांच रुपये की कोई चीज लेना चाहें, तो वह पांच सौ में मिलेगी, क्योंकि वहां सौ गुनी कीमतें हैं. ऐसे में इन सब व्यापारों से भारत के आम आदमी को कोई फायदा नजर नहीं आता. इसलिए इसके बारे में अभी मोदी जी को सोचना पड़ेगा.
एक प्रश्न यह भी है कि जो अंतरराष्ट्रीय मसले हैं, उसमें हमारी राय आप शामिल क्यों नहीं करते हैं? चाहे सीरिया का मसला हो, चाहे फिलिस्तीन या इराक का मसला हो, उन चीजों पर हम अटके रहते हैं कि कहीं अमेरिका हमसे नाराज न हो जाये. दूसरी बात यह है कि अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका की नीति बिल्कुल विफल हो गयी है. मोदी को चाहिए कि वे ओबामा से कहें कि अफगानिस्तान को अनाथ करके न छोड़ें, क्योंकि अगर वहां अराजकता फैल गयी, तो इसका असर सीधा भारत और उसके पड़ोसी देशों पर पड़ेगा. अगर अफगानिस्तान में शांति रहती है, तो भारत को यूरोप और पश्चिम एशिया जाने के लिए नजदीकी रास्ते खुल जायेंगे. व्यापार के लिए आवागमन आसान हो जायेगा और करोड़ों भारतीय नौजवानों के लिए मध्य एशिया में जाकर काम करने का रास्ता भी खुल जायेगा. इस बात पर मोदी को गौर करना चाहिए और ओबामा से कहना चाहिए कि जो सूची हम आपको दे रहे हैं, आप उन पर काम करें, तो पूरे पश्चिम एशिया में खुशहाली आ जायेगी.
दरअसल, होता यह है कि जब हमारे देश से कोई अमेरिका जाता है, तो अमेरिका अपनी कार्यसूची हम पर थोप देता है. अमेरिका को जब अपने खिलाफ आतंक से लड़ना होता है, तब वह भारत की मदद ले लेता है, लेकिन भारत के खिलाफ जो आतंकवाद है, उस पर वह कोई मदद नहीं करता. इसलिए अब ओबामा के आगे हमें अपनी कार्यसूची पेश करनी चाहिए. अगर ऐसा होता है, तभी हमारी विदेश नीति सफल होगी और हम अपने व्यापारिक रिश्ते को भी एक नया आयाम दे पायेंगे. अटल बिहारी वाजपेयी कहते थे कि भारत और अमेरिका के मुद्दे बहुत ही स्वाभाविक मुद्दे हैं, क्योंकि ये दोनों दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं. इस तरह देखें तो भारत को इन तीन देशों के साथ रिश्ते निभाते समय कुछ तथ्यों का ध्यान रखना होगा और अपनी कार्यसूची से उन्हें अवगत करा कर उनके कार्यान्वयन के लिए उनसे हां कहलवाना होगा, तभी संभव है कि हम इन देशों से बेहतर संबंध को बरकरार रख सकेंगे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

Prabhat Khabar Digital Desk
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