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जवाबदेही की कमी से राज्य का नुकसान हुआ

प्रो रिजवान कैसर इतिहासकार, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली कुछ लोग इस बात को विकास का पैमाना मान रहे हैं कि झारखंड की विधानसभा सीटों में इजाफा कर दिया जाये, तो बहुत संभव है कि वहां विकास को गति दी जा सकती है. यह पैमाना सही नहीं है. किसी भी राज्य के विकास के लिए राजनीतिक […]

प्रो रिजवान कैसर

इतिहासकार,

जामिया मिल्लिया इस्लामिया, दिल्ली

कुछ लोग इस बात को विकास का पैमाना मान रहे हैं कि झारखंड की विधानसभा सीटों में इजाफा कर दिया जाये, तो बहुत संभव है कि वहां विकास को गति दी जा सकती है. यह पैमाना सही नहीं है. किसी भी राज्य के विकास के लिए राजनीतिक नेतृत्व की सोच काफी मायने रखती है. राज्य के विकास के लिए दलगत राजनीतिक सोच से ऊपर उठ कर काम करने की दरकार होती है.

झारखंड का नाम सुनते ही एक ऐसे प्रदेश की याद जेहन में उभरती है, जो प्राकृतिक संसाधनों के मामले में देश का सबसे संपन्न राज्य है. लेकिन वास्तविकता इस हकीकत के बिल्कुल विपरीत है. आज से 14 साल पहले जब झारखंड एक नये राज्य के तौर पर भारतीय मानचित्र पर उभरा था, तो सबको उम्मीद थी कि यह देश के सबसे विकसित राज्यों में शुमार होगा. इसकी संसाधनिक संपन्नता राज्य के काने-कोने को संपन्न करती हुई विकास की एक नयी परिभाषा गढ़ देगी. लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो पाया. झारखंड की खराब हालत को लेकर अधिकांश लोगों की शिकायत थी कि बिहार प्रदेश ही झारखंड के संसाधनों का प्रयोग अपने हितों में कर रहा है. लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं था. इसके लिए खुद झारखंड को नेतृत्व देनेवाले लोग जिम्मेवार हैं.

जिन उम्मीदों और सपनों को लेकर झारखंड का गठन हुआ, वह कुछ ही वर्षो में टूटता दिखा. अलग राज्य बनने के शुरुआती वर्षो में भले ही झारखंड राज्य के विकास की कोशिश की गयी, लेकिन जल्द ही इसका विकास महज एक काल्पनिक कहानी बन कर रह गया. गठन के 14 वर्षो के सफर पर गौर करें, तो साफ जाहिर होता है कि झारखंड का समुचित विकास नहीं हो पाया है. झारखंड का विकास नहीं होने की दो वजहें हैं. पहला राजनीतिक कारण है, तो दूसरा कारण यह है कि वहां के दलों ने विकास की बजाय अपने राजनीतिक हितों को ही महत्व दिया.

झारखंड के विकसित राज्य न बन पाने का एक बुनियादी कारण यह रहा है कि वहां की सरकार चाहे जिस किसी भी पार्टी की रही हो, उसे राष्ट्रीय पार्टियों का समर्थन मिलता रहा है. ऐसे में सत्ता पर काबिज दलों ने राष्ट्रीय दलों के हितों को प्राथमिकता दी और राज्य का विकास सही तरीके से नहीं हो पाया. ऐसी स्थिति में दोष सिर्फ क्षेत्रीय दलों को क्यों जाये, राष्ट्रीय दलों को भी जाना चाहिए.

यह सही है कि झारखंड संसाधनों के मामले में काफी समृद्ध राज्य है, लेकिन इन संसाधनों से सिर्फ उद्योगपतियों और बिचौलियों ने ही पैसा कमाया. यह सिलसिला झारखंड के अलग राज्य बनने के साथ ही शुरू हो गया था. यहां तक कि इतने साल के दौरान कई दलों के शासनकाल के बाद भी संसाधनों की लूट रोकने की कोई व्यवस्था राज्य में नहीं दिखी. आम लोगों के प्रति जवाबदेही की व्यवस्था मजबूत होने की बजाय और भी ध्वस्त होती चली गयी. झारखंड का दुर्भाग्य रहा कि वहां जितने भी मुख्यमंत्री रहे, उनके समय भ्रष्टाचार को रोकने का कोई काम नहीं हुआ और न ही ऐसा करने के लिए दलों-नेताओं में कोई इच्छाशक्ति ही दिखी. इस तरह वहां की राजनीति अस्थिरता का अंजाम भुगतती रही. इस राजनीतिक अस्थिरता के कारण नौकरशाही भी भ्रष्ट होती चली गयी और वहां के नेता प्राकृतिक संसाधनों को बिना किसी जवाबदेही के उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को नीलाम करते रहे.

जिस आदिवासी नेतृत्व के नाम पर राज्य के विकास की उम्मीद की जा रही थी, वह पूरी नहीं हुई. गठन के बाद से आज तक झारखंड में सत्ता की बागडोर आदिवासी नेतृत्व के हाथों में ही रही, फिर भी राज्य का समुचित विकास नहीं हो पाया. यह कहना कि किसी खास समूह की बहुलता का नेतृत्व होने से ही राज्य का विकास सही तरीके से हो सकता है, उसे झारखंड की राजनीतिक तसवीर ने गलत साबित कर दिया है. झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ में भी आदिवासियों की बहुलता है.

लेकिन पिछले तीन चुनावों से गैरआदिवासी नेतृत्व लगातार चुनाव जीत रहा है. छत्तीसगढ़ के मुच्यमंत्री रमन सिंह ने राज्य के सभी वर्गो का भरोसा जीतने में सफलता हासिल की है. ऐसे में यह कहना है कि किसी खास वर्ग के नेतृत्व से ही राज्य का सही तरीके से विकास हो सकता है, गलत है. गैरआदिवासी मुख्यमंत्री होते हुए भी रमन सिंह ने आदिवासी कल्याण के विकास के लिए जितने काम किये हैं, वह झारखंड में कहीं नहीं दिखता है. आदिवासी समाज में भी छत्तीसगढ़ के नेतृत्व के कारण लाभ मिला है.

कुछ लोग इस बात को विकास का पैमाना मान रहे हैं कि झारखंड की विधानसभा सीटों में इजाफा कर दिया जाये, तो बहुत संभव है कि वहां विकास को गति दी जा सकती है. यह पैमाना सही नहीं है. किसी भी राज्य के विकास के लिए राजनीतिक नेतृत्व की सोच काफी मायने रखती है. राज्य के विकास के लिए दलगत राजनीतिक सोच से ऊपर उठ कर काम करने की दरकार होती है. और झारखंड की दुर्दशा की वजह है- लचर राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासन में जवाबदेही की कमी. राजनीतिक नेतृत्व के लचर रवैये के कारण ही नक्सल आंदोलन के प्रभाव को कम करने में अभी तक जरा सी भी सफलता नहीं मिल पायी है.

साथ ही राज्य के समुचित विकास के लिए लोगों को भी अपनी जवाबदेही समझनी होगी. ऐसे में यही उम्मीद है कि आगामी विधानसभा चुनाव के बाद झारखंड में एक मजबूत और निर्णायक सरकार का गठन होगा. न सिर्फ निर्णायक सरकार का गठन हो, बल्कि वह पिछली सभी सरकारों से अलग सोच रखते हुए जनता के प्रति अपनी जवाबदेही के साथ काम करे, तो मैं समझता हूं कि झारखंड सचमुच ही अपनी उन्नति को प्राप्त कर पायेगा.

(बातचीत : विनय तिवारी)

Prabhat Khabar Digital Desk
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