मखाना बोर्ड बनाये जाने के फैसले से मैं खुश हूं. मखाना के प्रति मेरी रुचि 1977 में जागी, जब मैं मधुबनी का डीएम था. केरल का निवासी होने के कारण मैंने पहले कभी मखाना देखा नहीं था. जल्दी ही यह मेरा पसंदीदा नाश्ता बन गया. मखाना के विकास के प्रति मैं तब सजग हुआ, जब मैंने पाया कि इसके उत्पादन में गरीब किसान लगे हुए हैं. तत्कालीन केंद्रीय उद्योग मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज के समर्थन के बावजूद हमें ज्यादा सफलता नहीं मिली. फिर भी बिहार में उद्योग महकमे में रहते हुए मैंने मखाना को आगे बढ़ाने का प्रयास जारी रखा, पर जब मैं केंद्रीय कृषि सचिव बना, तब खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय और उससे जुड़े निजी उद्यमियों से मदद मिली, जिसका कमोबेश असर भी दिखा.
वास्तविक सफलता तब मिली, जब दिल्ली के सिनेमा हॉलों में मखाना बतौर स्नैक्स मिलने शुरू हुए. मुझे याद है, उत्तर भारत में कॉफी को लोकप्रिय बनाने के लिए कॉफी बोर्ड ने लंबे समय तक प्रयास किया। उसका सुखद नतीजा तब दिखा, जब बरिस्ता और कैफे कॉफी डे जैसे कॉफी के अत्याधुनिक ठिकाने खुलने शुरू हुए. इस अनुभव का लाभ लेने की जरूरत है. मखाना को बड़ी और अत्याधुनिक जगहों तक पहुंचाना होगा.
मखाना बोर्ड के गठन का स्वागत करने के साथ-साथ कुछ चुनौतियां भी हैं. राज्यसभा सांसद संजय झा ने प्रस्तावित मखाना बोर्ड पर एक सारगर्भित लेख लिखा है. उम्मीद है कि बोर्ड के गठन से मखाना का उत्पादन बढ़ेगा, इसका प्रसंस्करण और विपणन (मार्केटिंग) बेहतर होगा तथा किसानों की आय बढ़ेगी. जाहिर है, उम्मीदें बहुत हैं, तो चुनौतियां भी कम नहीं हैं. कई बोर्डों के प्रबंधन के अनुभव के आधार मैं यह लेख लिख रहा हूं. मखाना बोर्ड का गठन संभवत: कृषि मंत्रालय के अंतर्गत होगा. दूसरा विकल्प खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय है, जो तुलनात्मक रूप से छोटा मंत्रालय है. उत्पादों के बोर्ड अलग-अलग मंत्रालयों के तहत गठित होते रहे हैं. जैसे, वाणिज्य मंत्रालय के तहत पांच बोर्ड- चाय, कॉफी, रबड़, मसाला और तंबाकू बोर्ड हैं.
हालांकि अब मसाला से अलग कर हल्दी बोर्ड बनाया गया है. कृषि, पशुधन विकास और वस्त्रोद्योग मंत्रालयों के अंतर्गत भी अनेक बोर्ड हैं. वाणिज्य मंत्रालय के तहत जो बोर्ड हैं, उनमें ज्यादातर बागवानी वाले उत्पाद (तंबाकू को छोड़कर) हैं, जिनका मुख्य फोकस निर्यात और विपणन है. कृषि मंत्रालय के अंतर्गत नारियल, बागवानी और मत्स्यपालन बोर्ड हैं, जिनका फोकस उत्पादन पर है. मार्केटिंग पर इनका फोकस अपेक्षाकृत कम है, जबकि वस्त्रोद्योग मंत्रालय के तहत गठित सिल्क बोर्ड में उत्पादन, प्रसंस्करण और मार्केटिंग के प्रति संतुलित रुख है. जिस बोर्ड का बाजार और उत्पादकों पर सर्वाधिक प्रभाव है, वह नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (एनडीडीबी) है, जिसे श्वेत क्रांति का इंजन कहते हैं.
ज्यादातर बोर्डों में निदेशकों की (बोर्ड के सदस्यों) बड़ी संख्या है. इनमें सांसद, केंद्र और राज्य सरकारों के विभागों के अधिकारी, किसानों तथा व्यापार जगत के प्रतिनिधि होते हैं, जैसे- मसाला बोर्ड में 32, केंद्रीय सिल्क बोर्ड में 31 और नारियल बोर्ड में 28 सदस्य हैं, जबकि एनडीडीबी में मात्र आठ निदेशक हैं. अधिक सदस्यों वाले बोर्ड अनुत्पादक होते हैं, जबकि एनडीडीबी मॉडल में बाहरी लोगों की पैठ नहीं है. जिन बोर्डों का नजरिया व्यापक नहीं है, वे भी अनुत्पादक साबित होते हैं. ऐसे में, मखाना बोर्ड की प्रकृति और इसके आकार पर सोच-समझ कर फैसला करना होगा. दूसरा मुद्दा बोर्ड के अध्यक्ष को लेकर है. पहले ज्यादातर बोर्डों (खासकर वाणिज्य मंत्रालय) में चेयरमैन ही सीइओ होता था. बाद में एक गैर कार्यकारी चेयरमैन (अक्सर राजनीतिक व्यक्ति ) और एक पेशेवर सीइओ का प्रावधान किया गया. इनमें चुनाव का स्पष्ट पैमाना नहीं था. दोनों तरह की व्यवस्था की सफलता उसके चेयरमैन पर निर्भर करने लगी. कहने का मतलब यह कि जिम्मेदार पद पर सही व्यक्ति के चयन पर ही बहुत कुछ बदल सकता है.
तीसरा मुद्दा फोकस का है. कृषि मंत्रालय के तहत गठित बोर्ड का फोकस उत्पादन पर रहता है, जबकि मखाने के उत्पादन, प्रसंस्करण और मार्केटिंग पर बराबर ध्यान देने की जरूरत है. चौथा मुद्दा शोध का है. नीतीश कुमार ने केंद्रीय कृषि मंत्री रहते हुए दरभंगा में आइसीएआर के तहत मखाना रिसर्च सेंटर की स्थापना की थी. अच्छा हो कि इस सेंटर को आइसीएआर के तहत ही रखा जाए. पांचवां मुद्दा निजी क्षेत्र की भूमिका का है. मखाना को बाजार में सुपरफूड के तौर पर लाने वाला निजी क्षेत्र ही है. इसलिए सरकार को चाहिए कि वह निजी क्षेत्र को मखाना उत्पादन क्षेत्र के आसपास प्रसंस्करण इकाइयां स्थापित करने को प्रोत्साहित करे. ‘अमूल’ ब्रांड के तहत गुजरात की सभी दुग्ध सहकारिता समितियां आती हैं और ‘दार्जिलिंग टी’ कई निजी चाय कंपनियों का साझा ब्रांड है. ब्रांड बनाना एक जटिल काम है, जिसे विशेषज्ञों पर छोड़ देना चाहिए. मखाना बोर्ड से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर केंद्र सरकार फैसला लेगी. यह बिहार के हित में होगा कि राज्य सरकार इस पहल का लाभ उठाए और समय पर केंद्र सरकार को महत्वपूर्ण सुझाव दे. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)