पहलगाम हमले के बाद भारत की फ्रांस से 26 राफेल एम (मरीन) की खरीद के समझौते पर हुए हस्ताक्षर रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं. कुल 63,000 करोड़ रुपये का यह सौदा हथियारों की खरीद के मामले में फ्रांस के साथ भारत की अब तक की सबसे बड़ी डील है. पिछले कुछ वर्षों से ‘मेक इन इंडिया’ और आत्मनिर्भर भारत के सपने देखने वाला भारत अब देश में निर्मित आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों के निर्यात की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है, लेकिन हमारी सैन्य सामग्री की विषद जरूरतों के चलते अब भी अरबों रुपयों की खरीद विदेशों से करना जरूरी है. यही कारण है कि 2016 में फ्रांस से 60,000 करोड़ रुपयों में 36 मल्टीरोल राफेल लड़ाकू विमान खरीद लेने के नौ साल बाद भारत ने एक नये रक्षा सौदे के अंतर्गत फ्रांस से ही 26 राफेल एम विमानों की खरीद पर 63,000 करोड़ रुपये खर्च करने का समझौता किया है.
लोगों में यह जानने की उत्सुकता हो सकती है कि इतनी जल्दी देश को एक और रक्षा सौदा करने की क्या जरूरत पड़ गयी. इसे समझने के लिए तीन प्रश्नों के उत्तर जरूरी हैं. पहला, भारतीय नौसेना के सामने कौन-सी नयी समस्याएं हैं, जिनसे निपटने के लिए इतनी बड़ी धनराशि खर्च करना आवश्यक हो गया? दूसरा, क्या नये राफेल एम विमान की जगह पहले आयातित राफेल मल्टीरोल लड़ाकू विमान से काम नहीं चलता? तीसरा, भारतीय नौसेना के दोनों विमानवाहक पोतों-विक्रमादित्य और विक्रांत पर सफलतापूर्वक इस्तेमाल किये जा रहे मिग 29 लड़ाकू विमान यदि पुराने पड़ गये हैं, तो उन्हीं के विकसित और संशोधित संस्करण क्यों नहीं खरीदे जा रहे, जबकि भारतीय वायुसेना मिग 21, 23, 25, 27, 29 और सुखोई एमके 31 आदि अनेक रूसी लड़ाकू विमानों का दशकों से उपयोग करती आयी है? रूसी विमान खरीदकर नौसेना भारतीय वायुसेना में उपलब्ध मेंटेनेंस प्रणालियों और साजो-सामान का साझा उपयोग करके इस खर्च बचा सकती थी. जैसे, विमानवाहक पोतों पर राफेल एम के लिए लिफ्ट जैसे सामान्य उपकरण भी बदलने पड़ेंगे, जो रूसी विमानों के उपयोग के लिए बने थे. दरअसल, हिंद महासागर में चीन की बढ़ती नौसैनिक गतिविधियों को देखते हुए हथियारों की नयी खरीद जरूरी थी. दक्षिण चीन सागर से आगे बढ़ कर चीन अब म्यांमार के क्यौकफ्यु में गहरा बंदरगाह बना रहा है, जो अंडमान-निकोबार से केवल 970 किलोमीटर दूर है. मालदीव के मराओ अटोल, श्रीलंका के हंबनटोटा, पाकिस्तान के ग्वादर आदि में बड़े-बड़े बंदरगाहों का चीन द्वारा निर्माण और वहां चीनी नौसेना की उपस्थिति ने भारत की तटीय सुरक्षा पर चिंता पैदा कर दी है. भारत के लगातार बढ़ रहे अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए दक्षिण पूर्व से लेकर धुर पश्चिम तक फैले हुए सागर-महासागरों में भारतीय पोतों और उनके कार्मिकों की सुरक्षा तथा अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप एवं हजारों मीलों तक फैले तटीय क्षेत्र की सुरक्षा के लिए भारतीय नौसेना की क्षमता में लगातार वृद्धि जरूरी है.
चीन के पास 500 युद्धपोत, 60 पनडुब्बियां और तीन विमानवाहक पोत हैं, जबकि भारत के पास केवल 160 युद्धपोत, 20 पनडुब्बियां और दो विमानवाहक पोत हैं. जाहिर है कि यह खाई भरने के लिए बेहद महंगा और लंबा अभियान छेड़ना पड़ेगा. भारत अपनी आर्थिक सीमाओं के मद्देनजर अभी नौसेना के दोनों विमानवाहक पोतों, विक्रमादित्य और विक्रांत की मारक दूरी और क्षमता ही बढ़ा सकता है. राफेल एम की खरीद इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. यह राफेल फाइटर जेट की तुलना में उन्नत है. दूसरा प्रश्न भारत में फिलहाल इस्तेमाल हो रहे राफेल लड़ाकू विमानों और प्रस्तावित राफेल एम विमानों के बीच के अंतर के बारे में है. राफेल एम विमानवाहक पोतों से उड़ान भरेंगे. इसके लिए पोत पर स्काई जंप उपकरण से विमान को लांच किया जाता है, ताकि छोटी दौड़ में ही विमान टेक ऑफ कर ले. इसी तरह लैंडिंग के समय विमानवाहक पर लगा हुक विमान में फंस कर उसे रोकता है और डेक पर अरेस्टर बैरियर भी लगे होते हैं. विमानवाहक पोतों से उड़ान भरने वाले जहाजों की अंडर कैरेज अधिक मजबूत होनी चाहिए. त्रिकोणीय डैने अर्थात डेल्टा विंग जिनकी टिप मोड़ी जा सके, विमानवाहक पोतों से उड़ान भरने वाले विमानों की पहचान हैं. ये फीचर राफेल एम में हैं, पर राफेल मल्टीरोल जेट में नहीं हैं, जो वायुसेना के अड्डों से उड़ते हैं. जहां तक शस्त्रास्त्रों, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और मारक क्षमता का प्रश्न है, तो वायुसेना में प्रयुक्त राफेल और नौसेना के लिए मंगाये गये राफेल विमान कई तरह के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित लड़ाकू विमान हैं, पर राफेल एम में एक्टिव इलेक्ट्रॉनिकली स्कैन्ड अरे रडार (एसइए) होगा, जो बेहतर इलेक्ट्रॉनिक टोह ले सकेगा, लंबी मार करने वाले एयर टू एयर और एयर टू सरफेस मिसाइल और एक्सोसेट एंटी शिप मिसाइल होंगे. इसके अतिरिक्त इससे हैमर गाइडेड बम और 30 एमएम कैनन का भी इस्तेमाल किया जा सकेगा. इन 26 राफेल एम विमानों में से 22 सिंगल सीटर जेट और चार टू सीटर ट्रेनर जहाज होंगे और सभी तकनीकी रूप से संशोधित और विकसित इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से सुसज्जित होंगे. मिग 29 की तुलना में राफेल एम बेहतर और विकसित कैरियर स्थित लड़ाकू जेट है. मिग 29 नौसेना से 2010 में जुड़ा था, राफेल मल्टीरोल जहाजों की खरीद का ऑर्डर 2016 में दिया गया था और वे वायुसेना में हाल में आये हैं, जबकि राफेल एम की आपूर्ति साढ़े तीन साल बाद शुरू होगी और ढाई साल में पूरी होगी.
राफेल एम की खरीद का निर्णय गहन और लंबी प्रक्रिया के बाद लिया गया था. अन्य विकल्पों के तुलनात्मक अध्ययन में इसके निकटतम प्रतिद्वंदी बोईंग के एफ/ए-18इ और एफ सुपरहोर्नेट थे. गोवा में लंबा ट्रायल लेने के बाद जुलाई, 2023 में राफेल एम के पक्ष में निर्णय लिया गया और अब मोलभाव के बाद इस समझौते पर दस्तखत हुए हैं. राफेल के निर्माता दसॉल्ट अविएशन ने राफेल जहाजों की पहली खेप की खरीद का ऑर्डर पाने के समय आश्वासन दिया था कि भारत में उनके रखरखाव और परिचालन प्रशिक्षण के अतिरिक्त लॉजिस्टिक मदद तथा ऑफसेट अनुबंध के अंतर्गत विमानों के पुर्जों का यथासंभव उत्पादन भी किया जायेगा. वैसे ही आश्वासनों के साथ राफेल एम विमानों के निर्माण और आपूर्ति का सौदा हुआ है. एक दिन भारत में सैन्य विमानों के उत्पादन की शृंखला में यह विमान एक नयी कड़ी बन जाए, यही कामना इस महत्वपूर्ण समझौते पर दस्तखत किये के बाद की जा सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)