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पारदर्शी और न्यायसंगत बने विश्व व्यापार संगठन

निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में अधिक समानता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए डब्ल्यूटीओ की शासन संरचना में सुधार और पुनर्संतुलन के प्रयास किये जाएं.

केसी त्यागी ( राजनीतिज्ञ)

बिशन नेहवाल ( आर्थिक चिंतक)

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को राष्ट्रों के बीच निष्पक्ष और खुले व्यापार को बढ़ावा देने के लिए गठित किया गया है. डब्ल्यूटीओ टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौते (जीएटीटी) से उभरा, जिसे 1948 में एक बहुपक्षीय समझौते के जरिये स्थापित किया गया था, जिसमें अमेरिका समेत 23 देश शामिल थे. इसका उद्देश्य टैरिफ और अन्य व्यापार बाधाओं को धीरे-धीरे कम कर व्यापार को उदार बनाना था. पर तटस्थता के मुखौटे के नीचे शक्ति की गतिशीलता का एक जटिल जाल छिपा हुआ है, जहां दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका समेत विकसित देशों के हित अक्सर सर्वोच्च होते हैं. समानता और सहयोग के अपने कथित लोकाचार के विपरीत डब्ल्यूटीओ एक उपकरण बन गया है, जिसके माध्यम से पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका, के आधिपत्य को कायम रखा जाता है. दुनिया के अधिकांश हिस्सों में डब्ल्यूटीओ को अमेरिका की रचना माना जाता है, जिसे भारत जैसे विकासशील देशों पर थोपा गया है. उसके नियम मुख्य रूप से विकसित देशों के नियम हैं, भले ही बहुपक्षीय व्यापार वार्ता के क्रमिक दौर में सभी सदस्यों द्वारा उन पर सहमति व्यक्त की गयी हो. यह धारणा निराधार नहीं है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित करने वाले नियम और विनियम अक्सर पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका, की प्राथमिकताओं और प्रतिबद्धताओं को दर्शाते हैं. बौद्धिक संपदा अधिकारों से लेकर कृषि सब्सिडी तक वैश्विक व्यापार का ढांचा विकसित देशों के मानदंडों और मानकों से काफी प्रभावित है.


इसका प्रमाण ढूंढने के लिए दूर तक देखने की जरूरत नहीं है. मसलन, डब्ल्यूटीओ समझौतों की आधारशिला बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) के व्यापार-संबंधी पहलुओं पर समझौते को लें. हालांकि जाहिर तौर पर इसका उद्देश्य बौद्धिक संपदा की रक्षा करना है, लेकिन ट्रिप्स विकसित देशों, विशेषकर अमेरिका, को उनकी तकनीकी प्रगति और नवाचारों की सुरक्षा कर असंगत रूप से लाभ पहुंचाता है. इससे विकसित देशों और निगमों को आवश्यक दवाओं और प्रौद्योगिकियों तक पहुंच के लिए संघर्ष कर रहे विकासशील देशों की कीमत पर वैश्विक बाजार में एक महत्वपूर्ण प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिलता है. विकसित देश अक्सर अपने कृषि क्षेत्रों को सब्सिडी देते हैं, लेकिन भारत जैसे कृषि प्रधान विकासशील देश में किसानों को मिलने वाली सब्सिडी पर ऐतराज जताते हैं, जबकि यह सब्सिडी पश्चिमी देशों की तुलना में काफी कम है. डब्ल्यूटीए के नियमों के मुताबिक 10 प्रतिशत से ज्यादा सब्सिडी नहीं दी जा सकती है. भारत का कहना है वह इस सीमा को पार नहीं करता है. भारत में अभी हर किसान को प्रति साल सिर्फ 227 डॉलर (18,160 रुपये) की सब्सिडी मिलती है. यह बिजली, पानी, खाद, बीज, न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि के तौर पर दी जाती है. प्रति किसान सालाना सब्सिडी ब्राजील में 25,900, चीन में 59,605, यूरोपीय संघ 4.67 लाख, जापान सात लाख, कनाडा 11.44 लाख और अमेरिका 48.46 लाख रुपये है. सब्सिडी देने के मामले में अमेरिका सबसे आगे है. यह भारत में किसानों को मिलने वाली सब्सिडी का 267 गुना है.


डब्ल्यूटीओ समझौते अक्सर विकासशील देशों को टैरिफ कम करने पर जोर देते हैं, जिससे सस्ता आयात होने से बाजार में विदेशी उत्पादों की बाढ़ सी आ जाती है. इससे स्थानीय व्यवसाय बंद हो सकते हैं, नौकरियां खत्म हो सकती हैं और घरेलू औद्योगिक विकास में बाधा आ सकती है. इसके कारण भारत समेत अन्य विकासशील देशों के किसानों को अस्थिर बाजारों का सामना करना पड़ता है. इस अस्थिरता को संबोधित करने के लिए ही भारतीय किसान पूर्व-निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारित करने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे है. आयात पर शुल्क (टैरिफ) विकासशील देशों के लिए आय का साधन होते हैं और उनकी कमी होने से सरकारी राजस्व की हानि होती है, जिससे कल्याणकारी योजनाओं के लिए बजट कम हो सकता है. घरेलू समर्थन और निर्यात सब्सिडी जैसे तंत्रों से धनी देश कृषि व्यापार में अपना प्रभुत्व बनाये रखते हैं, जबकि वैश्विक दक्षिण में छोटे उत्पादकों को अनुचित प्रतिस्पर्धा और बाजार विकृतियों से जूझने के लिए छोड़ दिया जाता है. इससे न केवल वैश्विक असमानता बढ़ती है, बल्कि गरीबी और खाद्य असुरक्षा का चक्र भी कायम रहता है. डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटान तंत्र के साथ भी ऐसा ही है. कानूनी संसाधनों और विशेषज्ञता की असंगत हिस्सेदारी के साथ अमेरिका अपने आर्थिक हितों की रक्षा करने और अपनी पसंदीदा व्यापार नीतियों के अनुपालन के लिए डब्ल्यूटीओ की न्यायिक प्रक्रिया का लाभ उठाता है.

डब्ल्यूटीओ केवल अमीर देशों के हितों को आगे बढ़ाने का माध्यम नहीं है. यह एक बहुपक्षीय संस्था है, जिसके सदस्य अपने-अपने एजेंडे और प्राथमिकताओं पर काम करते हैं. इन वास्तविकताओं के आलोक में यह जरूरी है कि निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में अधिक समानता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए डब्ल्यूटीओ की शासन संरचना में सुधार और पुनर्संतुलन के प्रयास किये जाएं. इसमें सदस्य देशों के बीच सत्ता के असमान वितरण को संबोधित करना, विकासशील देशों की आवाज और प्रतिनिधित्व को मजबूत करना और संगठन के संचालन में पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देना शामिल है. केवल ऐसे सुधारों के माध्यम से ही डब्ल्यूटीओ केवल कुछ चुनिंदा सदस्यों के बजाय अपने सभी सदस्यों के हितों की सेवा करने वाली एक वास्तविक बहुपक्षीय संस्था के रूप में अपने जनादेश को पूरा कर सकता है.
आज भारत समेत कई देशों के किसान अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं. डब्ल्यूटीओ के साथ समझौतों की समीक्षा उनकी प्रमुख मांगों में से एक है. भारतीय किसान तो भारत पर डब्ल्यूटीओ से बाहर आने तक का दबाव बना रहे हैं. इसलिए भारत समेत सभी सदस्य देशों का दायित्व है कि वे एक अधिक न्यायसंगत और समावेशी वैश्विक व्यापार प्रणाली की दिशा में काम करें, जो विशेषाधिकार प्राप्त कुछ लोगों की तुलना में कई लोगों के हितों को प्राथमिकता दे. तभी विश्व व्यापार संगठन वास्तव में आपसी सम्मान और साझा लाभ के आधार पर राष्ट्रों के बीच समृद्धि और सहयोग को बढ़ावा देने के अपने वादे को पूरा कर सकता है. कृषि संबंधी समझौतों पर भारत सरकार के कड़े रुख के बाद किसानों ने राहत की सांस ली है.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)

Prabhat Khabar Digital Desk
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