रांची : प्रकृति पर्व सरहुल आदिवासियों का सबसे बड़ा त्योहार है. इस पर्व पर जनजातीय समुदाय अच्छी फसल के लिए धर्मेश से प्रार्थना करते हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि यह त्योहार पर्यावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है. यह पर्व पर्यावरण संरक्षण के लिए कितना अहम है कि इसे जानने के लिए प्रभात खबर के प्रतिनिधि समीर उरांव ने शोधकर्ता गुंजल इकर मुंडा से इस विषय पर खास बात की.
सरहुल पर्व की इकॉलोजी पर्यावरण पर ही निर्भर
गुंजल इकर मुंडा ने कहा कि सरहुल पर्व की जो इकॉलोजी है वह पर्यावरण पर ही निर्भर है. वन नहीं रहेगा तो हम त्योहार की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. त्योहार में सरना स्थल पर ही पूजा होती है, जहां पर पेड़ों का झुंड होता है. जिसका प्रतीक एक साल का वृक्ष है. सरहुल वहीं पर ज्यादा प्रसिद्ध है जहां पर वनों की संख्या अधिक है. इसलिए वन बचेंगे तो ही त्योहार बच पाएगा. दोनों परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.
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सरहुल पूजा जंगल पर आश्रित होना और खेती करने के बीच का त्योहार
गुंजल मुंडा आगे कहते हैं कि सरहुल पूजा का जो विधि विधान है यह मनुष्य के जंगल पर आश्रित होना और खेती करने के बीच का त्योहार है. इस विधि विधान में आपको जंगल की पूजा भी दिखेगी. इस त्योहार में लोग भविष्य में होने वाली खेती की शुभकामनाएं भी मांगते हैं. कुल मिलाकर कह दें तो यह जंगल की भी पूजा और कृषि दोनों की पूजा है.
सरहुल के वृक्ष की ही क्यों पूजा की जाती है
सरहुल में साल के ही वृक्ष के ही क्यों पूजा की जाती है इस सवाल के जवाब में गुंजल मुंडा ने कहा कि चूंकि साल का वृक्ष बहुतायत में मिलता है. गांव में अगर कोई भी सरना स्थल है जो अभी भी सुरक्षित है, वहां पर साल के वृक्ष की संख्या अधिक होगी. इसके अलावा साल के वृक्ष की उर्वरता की वजह से फल और बीज कलेक्टिव होकर गिरते हैं. जिसे देखकर मनुष्य भी सोचते हैं कि हम उसी तरह फलते फूलते रहे. इस वजह से भी लोग साल के वृक्ष की ही पूजा करते हैं.
कब निकाली गयी रांची में पहली शोभा यात्रा
गुंजल मुंडा ने कहा कि राजधानी रांची में पहली शोभा यात्रा 1962 में निकली थी, लेकिन 1980 में इसका पुनर्जागरण काल था. उसी वक्त जनजातीय और क्षेत्रीय विभाग का स्थापना हुआ था. 1980 के बाद से लोग अपना मांदर, नगाड़ा लेकर और अधिक प्रबल रूप से निकलने लगे.
रामदयाल मुंडा क्यों ढोल नगाड़े को लेकर फ्लाइट में चले गये थे विदेश
गुंजल मुंडा ने डॉ रामदयाल मुंडा द्वारा ढोल नगाड़ा लेकर फ्लाइट में चढ़ने का एक किस्सा का भी जिक्र किया है. उन्होंने कहा कि साल 1989-90 में रूस में फेस्टिवल ऑफ इंडिया चल रहा था. हर साल इसका आयोजन अगल अलग देशों में होता था. उस साल का थीम फेस्टिवल ऑफ यूएसएसआर करके था. झारखंड के भी सारे कलाकार लोग रूस गये. यहां के दल को पूरे भारत का नेतृत्व करने को मिला था. सरहुल से इसका डायरेक्ट लिंक तो नहीं है लेकिन सांस्कृतिक पुनर्जागरण माहौल उसी वक्त से बना. इसलिए पर्व त्योहार से ये सारी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हुई है.
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