सलिल पांडेय, मिर्जापुर
Chaturmas 2025: हिंदू परंपरा में देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक की अवधि को चार्तुमास का शुभ काल माना जाता है. इन चार मास में विभिन्न वत-उपवास हरेक व्यक्ति को आत्मिक उत्थान का अवसर देता है. यह अवधि मानव जीवन में शक्ति और ऊर्जा के संचय करने का सुअवसर है… भारतीय परंपरा में एकादशी तिथि विष्णु, तो चतुर्दशी तिथि शिव को समर्पित है. धार्मिक मान्यतानुसार, देवशयनी एकादशी (आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी) की तिथि को भगवान विष्णु इस सृष्टि का संचालन छोड़ योगनिद्रा में प्रवेश करते हैं. इसके बाद वह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि यानी देवउठान एकादशी तक शयन में रहते हैं. इस चार माह को भारतीय जीवन में चार्तुमास कहा गया है. जब भगवान योगनिद्रा में सृष्टि के संचालन के लिए शक्ति, ऊर्जा और प्रेम का संचयन करते हैं, उस दौरान भगवान महादेव के जिम्मे इस सृष्टि के संचालन की जिम्मेदारी होती है. आषाढ़, सावन, भाद्र, कुंवार और कार्तिक मास में शिव की आराधना करनेवाले को भगवान विष्णु का भी आशीर्वाद प्राप्त होता है.
श्रीविष्णु क्षीर सागर में करते हैं विश्राम
पौराणिक मान्यता के अनुसार, इन चार माह के दौरान सृष्टि के पालनकर्ता भगवान श्रीविष्णु क्षीर सागर में विश्राम करते हैं, इसलिए सभी शुभ और मांगलिक कार्य को वर्जित रखा जाता है. पुराणों में कथा है कि राजा बलि के दान पुण्य से खुश होकर भगवान विष्णु ने वरदान मांगने को कहा, तो वलि ने भगवान विष्णु को साथ पाताल लोक चलने को कहा. भगवान के पाताल में रहने से चिंतित माता लक्ष्मी ने बलि को भाई बनाकर राखी बांधी और बदले में भगवान विष्णु को पाताल लोक से ले जाने का वचन ले लिया. पाताल से विदा लेते वक्त भगवान विष्णु ने राजा बलि को आशीर्वाद दिया कि वह आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक पाताल लोक में वास करेंगे. इस अवधि को योगनिद्रा माना गया.
चार्तुमास के चार महीने आते हैं
बृहदारण्यकोपनिषद् (1/5/21-23) में कहा गया है कि शरीर की विभिन्न इंद्रियों का एक ही व्रत है कि वह अपने लिए एक कार्य का चुनाव करे, व्रत शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है एक ही स्थान पर परिभ्रमण अथवा परिक्रमा करना. व्रत में सात्त्विक गुण की प्रधानता होती है. रज और तम गुण गौण होते हैं. पर्व में राजस प्रधान है. व्रत सरल होते हैं, परंतु पर्व में भव्यता और संपन्नता होती है. त्योहार सामान्यतः सामाजिकता के साथ तम प्रधान होता है. पर्व की एक निश्चित अवधि होती है. पर्व को उत्सव की तरह मनाया जाता है, जबकि व्रत को कठोरता से आत्मिक उत्थान का साधन माना जाता है. इस कारण पर्व और तीर्थ का काम देश और समाज को जगाने और क्रियाशील बनाने के लिए है. तीर्थ में देश का स्वरूप प्रकट होता है, तो पर्व में काल और समय का अर्थ उद्भाषित होता है.
आषाढ़ में वर्षों के आगमन के साथ ही और साधना के प्रखर होने की शुरुआत हो जात देवशयनी एकादशी बस उसका एक प्रतीक है कि व्रतकाल शुरू हो रहा है. इस चार माह की अवधि में सबसे ज्यादा व्रत आते हैं- स्त्रियों के लिए भाद्रपद शुक्ल तृतीय को हरतालिका व्रत, श्रावण शुक्ल तृतीय को तीज, भाद्रपद की चतुर्थी को गणेश व्रत, श्रावण शुक्ल को नागपंचमी, भाद्रशुक्ल पंचमी को ऋषि पर्व, भाद्र कृष्ण में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, भाद्रपद शुक्ल को राधाष्टमी, आश्विनी शुक्ल को विजयदशमी, आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा, सावन पूर्णिमा को रक्षाबंधन, आश्विन को शरद पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा को गंगास्नान, आश्विन में अमावस्य को महालया और कार्तिक में दीपावली का अनुष्ठान. आश्विन के कृष्ण पक्ष में पितरों की श्रद्धा के साथ मन, शरीर और आत्मा को सात्विक किया जाता है. इसके बाद शरीर और मन से शक्ति का आह्वान किया जाता है. नौ दिन-रात की आराधना और साधना के बाद जीवन प्रखर और प्रबल हो जाता है.
जगद्धात्री के प्रति विनम्रता और आदर समपिर्त कर नये उत्साह के साथ व्यक्ति अपने कर्म और धर्म की यात्रा में जब देवउठान एकादशी से चलता है, तो उसकी शक्ति में सार्थकता और सफलता का परिचय मिलता है. चातुर्मास में पानी की अधिकता के कारण जीवों की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है. भोजन और जल में बैक्टीरिया एवं वायरस की तादाद बढ़ जाती है. इस कारण इन चार महीनों के देवता भगवान शिव की साधना, आराधना एवं कथावाचन को श्रेष्ठ कर्म माना गया है. इस चार माह की शक्ति और ऊर्जा के संचयन से व्यक्ति अगले पूरे साल में पूरी जिजीविषा के साथ कर्मपथ पर गतिमान रहता है. यह घनघोर वर्षों का काल है, जिसमें साधु संत और ऋषि-मुनि एक स्थान पर रुक कर साधना, आराधना और उपासना करते हैं. इस समय वर्षा ऋतु के कारण नदी-नाले में पानी भरा रहता है. कीड़े मकोड़ों एवं जीव-जंतुओं के प्रजनन का यह काल होता है. इस समय परिभ्रमण या कर्म करने से उनको हानि होने की आशंका रहती है. अतएव जीव एवं प्रकृति के लिए चातुर्मास की अवधि को ठहराव का काल बताया गया है.
वहीं याज्ञवल्क्य ने व्रत को मानसिक संकल्प की संज्ञा दी है. इसका पालन और संपादन एक अनुशासन के अधीन करना ही उचित है. व्रत सदैव आत्मिक होते हैं, जिससे व्यक्ति अपने तन और मन से दोष, दुर्गुण, अहंकार और कलुष को दूर कर परम लक्ष्य के लिए खुद को संस्कारित एवं विकसित करता है. नियम एवं धरम चातुर्मास आध्यात्मिक चिंतन, भक्ति और ध्यान लगाने का काल माना जाता है. भगवान विष्णु की योगनिद्रा के दौरान उनके संरक्षण में अपने मन और आत्मा को समर्पित करने का समय होता है. इस दौरान श्रीहरि की भक्ति व पुण्य कार्यों के करने से अक्षय फलों की प्राप्ति होती है. इस दौरान मिथ्या वचन बोलने से बचें. इससे जिह्वा पर बैठी मां सरस्वती को पीड़ा होती है और वे रुष्ट होती है, जिसका नतीजा यह होता है कि भावी पीढ़ी अज्ञानी होती है. साथ में पुण्य नष्ट होता है. साथ ही किसी के साथ छलछद्म न करें, यह महापाप बताया गया है. गोस्वामी तुलसीदास ने ‘निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल-छिद्र न भाया चौपाई में स्पष्ट कर दिया है.
देवशयनी एकादशी की पूजा इस दिन रात्रि में विशेष विधि-विधान से भगवान विष्णु की पूजा करें, सक्षम हों तो उपवास रखें. उन्हें पीली वस्तुएं, पीले वस्त्र आदि अर्पित करें. विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करें. अंत में आरती करें- ‘सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्, विबुद्दे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचम्।’
11 से श्रावण मास शुरू रविवार, 6 जुलाई को आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी (देवशयनी एकादशी) से चातुर्मास की शुरुआत हो चुकी है और शनिवार, 1 नवंबर को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी (देवउठनी एकादशी) पर समाप्ति होगी. इस काल में सूर्य, चंद्रमा और प्रकृति की उर्जा कमजोर होती है, जिसे देवशयन कहते हैं. शुभ शक्तियों का प्रभाव कम होने से शुभ कार्यों में बाधाएं आती हैं. अतः शुभ कार्य की मनाही रहती है. वहीं 11 जुलाई से भगवान भोलेनाथ को प्रिय श्रावण मास शुरू होगा. पहला सोमवारी व्रत 14 जुलाई को होगा. इस बार कुल 4 सोमवारी व्रत पड़ेंगे.