पवन कुमार/ Bihar News: मधेपुरा के रानीपट्टी पूर्वी और पश्चिमी टोले के लोगों ने यह ठाना है कि वे मृत्यु भोज और कर्मकांड जैसे आर्थिक बोझ वाले रीति-रिवाजों को अब और नहीं ढोएंगे. गांव के वरिष्ठ नागरिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मृत्यु के बाद भोज की परंपरा गरीब परिवारों को आर्थिक रूप से तोड़ देती है. कई बार इसके लिए लिये गये कर्ज की भरपाई अगली पीढ़ियां भी नहीं कर पातीं. यहां के अजित प्रसाद बताते हैं-गांव में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां लोगों ने मां-बाप के निधन पर भोज करने के लिए कर्ज लिया और वर्षों बाद भी उससे उबर नहीं सके. सामाजिक कार्यकर्ता बबलू कुमार के अनुसार-रानीपट्टी में सालाना मृत्युभोज पर 50 लाख से लेकर पांच करोड़ रुपये तक खर्च होते हैं. ये आंकड़े गांव की आर्थिक स्थिति को बयां करने के लिए काफी हैं.
संवेदनशीलता से उपजा संकल्प
रविवार को गांव के वार्ड संख्या 10 निवासी जुगत लाल यादव के निधन के बाद जब ग्रामीण अंतिम संस्कार के लिए जमा हुए, तो रानीपट्टी पश्चिम स्थित शिव मंदिर परिसर में एक महत्वपूर्ण बैठक हुई. पहले कुछ लोग हिचकिचाए, लेकिन फिर सभी ने एक सुर में यह निर्णय लिया कि अब किसी की मृत्यु पर भोज या कर्मकांड नहीं किया जायेगा. गांव के ही आनंद कुमार बताते हैं कि इस आंदोलन की नींव 2020 में चंद्रकिशोर दास के निधन के बाद पड़ी थी, जब बिना किसी कर्मकांड के श्रद्धांजलि दी गयी थी. तब कुछ विरोध हुआ था, लेकिन धीरे-धीरे लोग समझने लगे कि असली श्रद्धांजलि दिखावा नहीं, सादगी और सहानुभूति है.
अब उम्मीद राज्य से देश तक फैलने की
बैठक में इंजीनियर अजित प्रसाद, अमीलाल यादव, बालेश्वर यादव, मुखिया अनिल ऋषिदेव, उपेंद्र यादव, अशोक यादव, बबलू कुमार, राजेश कुमार समेत कई अन्य लोगों की सक्रिय भागीदारी रही. सभी ने इसे सामाजिक क्रांति की संज्ञा दी और संकल्प लिया कि इस परंपरा को अब पूरे गांव में सख्ती से लागू किया जायेगा. राजेश कुमार और सामाजिक कार्यकर्ता बबलू कुमार वर्षों से अंधविश्वास और पाखंड के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. उनका मानना है कि यह फैसला रानीपट्टी तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह वैचारिक आंदोलन पूरे राज्य और देश में बदलाव की लहर बन सकता है.