विधवाओं के संघर्ष और हौसले को समर्पित ‘अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस आज
अगर मन में है विश्वास तोकठिन पथ भी सरल बन जाता हैसाथी पतवार बन जुड़ते जातेनैया मंझधार पार लग जाती है…रांची. हर साल 23 जून को इंटरनेशनल विडो दिवस के रूप में मनाया जाता है. यह दिन उन महिलाओं को समर्पित है, जिसने अपने पति को खोने के बाद समाज की उपेक्षा, तीरस्कार, गरीबी, भेदभाव को झेला है. पति के जाने के बाद महिलाएं सामाजिक बहिष्कार और हिंसा का शिकार तो होती हैं. साथ ही भावनात्मक और आर्थिक परेशानियों को झेलकर आगे बढ़ने की कोशिश करती हैं. इस दिवस पर ऐसी कुछ महिलाओं की संघर्ष को जानते हैं, जो अकेले रहकर इन सामाजिक पीड़ा को झेला और आगे बढ़ी. विधवा महिलाओं को कई कानूनी अधिकार हैं. संपत्ति में अधिकार, भरन पोषण का अधिकार, पुनर्विवाह का अधिकार के अलावा विधवा को सामाजिक सुरक्षा योजनाएं जैसे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना का लाभ मिल सकता है. घरेलू हिंसा से सुरक्षा का अधिकार भी प्राप्त है.
संघर्ष की मिसाल बनीं अर्पणा सिंह
किशोरगंज की अर्पणा सिंह बताती हैं कि वर्ष 1994 की वह शाम उनकी जिंदगी बदल गयी. चंद मिनट पहले जिनसे भविष्य की योजनाएं बन रही थीं, वही पति अचानक दुनिया छोड़ गये. दो मासूम बेटियों की जिम्मेदारी और समाज के तानों के बीच उन्होंने कभी हार नहीं मानी. बड़े भाई गोपाल सिंह, सहकर्मियों और प्रधानाचार्य के सहयोग से वे आगे बढ़ीं. खुद को संभालने के लिए उन्होंने लेखन और मधुबनी पेंटिंग को अपना साथी बना लिया.मनीषा ने पढ़ाई पूरी कर बच्चों को संवारा
अरगोड़ा हाउसिंग कॉलोनी की मनीषा ने भी विषम परिस्थितियों में हार नहीं मानी. शादी के कुछ वर्षों बाद लंबी बीमारी के चलते पति का निधन हो गया. उस समय बेटी मात्र साढ़े पांच साल की थी और बेटे का जन्म पति के निधन के दो महीने बाद हुआ. मनीषा ने अपनी अधूरी पढ़ाई को फिर से शुरू किया और बच्चों के पालन-पोषण के साथ-साथ पीएचडी की उपाधि प्राप्त की. वर्तमान में पीयूपी कॉलेज मोतिहारी में गृह विज्ञान विभाग में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है