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Ranchi News : जर्मनी के मिशनरियों को सुसमाचार प्रचार में होती थी कठिनाई

25 जून 1846 को मार्था नाम की एक अनाथ बच्ची का बपतिस्मा हुआ था.

जीइएल चर्च की पहली सदस्य मार्था के बपतिस्मा 25 जून पर विशेष

रांची. 25 जून 1846 को मार्था नाम की एक अनाथ बच्ची का बपतिस्मा हुआ था. वह जीइएल चर्च की पहली सदस्य थी. मार्था का बपतिस्मा जर्मन मिशनरी इमिल शत्स ने किया था. मार्था बीमार थी और बपतिस्मा के बाद उसकी मृत्यु हो गयी थी. मार्था को पूरे सम्मान के साथ जीइएल चर्च के कब्रिस्तान में दफन किया गया. आज भी उसकी कब्र जीइएल चर्च कब्रिस्तान में हैं जहां हर साल 25 जून को विशेष आराधना होती है. पर मार्था के बपतिस्मा के पूर्व क्या परिस्थितियां थी इसका विवरण पादरी कुशलमय शीतल ने दिया है. पादरी कुशलमय शीतल को छोटानागपुर चर्च के पहले इतिहासकार के रूप में माना जा सकता है. उन्होंने एंग्लिकन कलीसिया के तहत छोटानागपुर डायसिस की स्थापना के समय (23 मार्च 1890) की घटनाओं का आंखों देखा विवरण प्रस्तुत किया है. साथ ही उन्होंने 1844 से लेकर 1890 तक छोटानागपुर के मसीही समुदाय के बीच घटनेवाली प्रमुख घटनाओं का विवरण अपनी पुस्तक छोटानागपुर की कलीसिया का वृतांत में दिया है. एंग्लिकन चर्च के होने के बावजूद उन्होंने गोस्सनर मिशन और कैथोलिक चर्च की घटनाओं को अपनी पुस्तक में शामिल किया है. छोटानागपुर में सबसे पहले वर्ष 1845 में पहुंचनेवाले जर्मनी के चार मिशनरियों को सुसमाचार प्रचार में किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा इसका भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है. कुशलमय शीतल लिखते हैं कि जर्मनी के मिशनरियों को सुसमाचार प्रचार के लिए बर्मा जाना था. पर वे वहां नहीं पहुंच सके. उस समय रांची में रहनेवाले कमिश्नर और डिप्टी कमिश्नर ने उन चारों मिशनरियों को रांची आमंत्रित किया. दो नवंबर 1845 में वे मिशनरी कोलकाता से रांची पहुंचे. यह यात्रा उन्होंने बैलगाड़ी में की थी.

जज की कोठी के पास लगाया था पहला तंबू

कुशलमय लिखते हैं कि सबसे पहले उन मिशनरियों ने तत्कालीन जज की कोठी के पास अपना तंबू लगाया. तीन-चार दिनों के बाद उन्होंने वर्तमान गोस्सनर कंपाउंड में वहां अपना तंबू लगाया, जहां बेथेसदा गर्ल्स स्कूल है. ये मिशनरी आसपास के गांवों में जाते थे और उपदेश सुनाते थे. वे कई बार गांवों से निकाले जाते थे. फिर भी वे निंदा और लोगों के दुर्व्यवहार को सह कर अपना काम करते रहे. उस समय अंग्रेज शासकों ने उन मिशनरियों को कुछ अनाथ बच्चों का पालन पोषण का जिम्मा सौंपा. मिशनरियों ने उनका पालन-पोषण करना शुरू किया. उनको लेकर स्कूल की शुरुआत की और सुसमाचार प्रचार भी. मार्था के बपतिस्मा के अगले दिन कुछ और बच्चों का बपतिस्मा हुआ. लेकिन, वर्ष 1846 के बाद अगले कुछ सालों तक एक भी बपतिस्मा नहीं हो पाया था. इससे उनके बीच निराशा भी फैली. पर फादर गोस्सनर के उत्साह भरे शब्दों से प्रेरित हुए और यहां काम करते रहें. वर्ष 1850 में पहली बार चार व्यस्क लोगों ने बपतिस्मा लिया और छोटानागपुर में मिशन कार्य आगे बढ़ा.

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