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Ranchi News : जब विश्व युद्ध में जर्मन मिशनरियों को छोड़ना पड़ा भारत

राजधानी रांची स्थित जर्मन इवैंजेलिकल लूथरन (जीइएल) चर्च का इतिहास 19वीं सदी के मध्य से जुड़ा है.

(जीइएल चर्च का गौरवशाली इतिहास)

जीइएल चर्च के आटोनोमी दिवस (10 जुलाई पर विशेष)

प्रथम विश्वयुद्ध के समय जर्मन मिशनरियों को मान लिया था शत्रु

रांची(प्रवीण मुंडा). राजधानी रांची स्थित जर्मन इवैंजेलिकल लूथरन (जीइएल) चर्च का इतिहास 19वीं सदी के मध्य से जुड़ा है. इसकी शुरुआत 1845 में चार जर्मन मिशनरियों के आगमन के साथ मानी जाती है. उस समय ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जर्मन मिशनरियों के प्रति रुख सहानुभूतिपूर्ण था. वे धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक कार्यों के माध्यम से स्थानीय समाज में उल्लेखनीय योगदान दे रहे थे. लेकिन, प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान वैश्विक परिस्थितियों में तेजी से बदलाव आया. जर्मनी और ब्रिटेन जब युद्ध में एक-दूसरे के विरोधी खेमे में आ गये, तो भारत में कार्यरत जर्मन मिशनरियों की स्थिति संकटग्रस्त हो गयी. मिशनरी फर्डीनांद हान की परपोती मेरी जिरार्ड के अनुसार, जुलाई 1914 में युद्ध छिड़ते ही छह अविवाहित जर्मन मिशनरियों को ब्रिटिश प्रशासन द्वारा नजरबंद कर दिया गया. इसके बाद अन्य मिशनरियों और उनके परिवारों को भी हिरासत में लिया गया और बिहार के दीनापुर स्थित एक नजरबंद शिविर में भेजा गया. इस दौरान रांची, लोहरदगा, पुरुलिया, हजारीबाग, चाईबासा, टकरमा, गोविंदपुर, गुमला, राजगांगपुर, किनकेल, झारसुगड़ा, चक्रधरपुर, खूंटीटोली, बुरजू, तमाड़ और असम के मिशन स्टेशनों को बंद कर दिया गया. इन स्टेशनों की जिम्मेदारी एंग्लिकन बिशप वेस्टकॉट को सौंपी गयी, जो अस्थायी रूप से इनका संचालन करते रहे.

ब्रिटिशों की असफल उम्मीदें और मिशनरियों की स्वदेश वापसी

ब्रिटिश प्रशासन को उम्मीद थी कि इन मिशनरियों के माध्यम से जर्मनी के शासकों के साथ किसी तरह की कूटनीतिक बातचीत संभव होगी. लेकिन, जर्मन सरकार ने भारत में कार्यरत इन मिशनरियों के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई. अंततः सभी बंदियों को एक जहाज के माध्यम से स्वदेश भेज दिया गया. जहां 250 यात्रियों की क्षमता वाले जहाज में 600 लोगों को ठूंसकर जर्मनी रवाना किया गया. जर्मन मिशनरियों के प्रस्थान के बाद जीइएल चर्च के समक्ष एक गंभीर संकट खड़ा हो गया चर्च के संचालन का. उस समय आदिवासी नेतृत्व के समक्ष दो विकल्प थे: या तो वे एंग्लिकन चर्च में विलय कर जायें या फिर स्वतंत्र रूप से जीइएल चर्च का संचालन करें. इस ऐतिहासिक मोड़ पर रांची के आदिवासी नेताओं ने विलय के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए स्वावलंबन का रास्ता चुना और खुद अपने बलबूते जीइएल चर्च का संचालन जारी रखा. यह निर्णय झारखंड में आत्मनिर्भर ईसाई नेतृत्व की नींव बन गया, जिसकी प्रेरणा आज भी प्रासंगिक है.

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