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सरायकेला में राजा विक्रम सिंह ने 1620 में शुरू की थी दुर्गा पूजा, आज भी तांत्रिक पद्धति से हो रही पूजा

सरायकेला में दुर्गापूजा आज भी तांत्रिक पद्धति से की जाती है. इसकी शुरुआत सरायकेला राजघराना की स्थापना के कुछ वर्षों बाद से शुरू की गयी थी. सन् 1620 में इसकी शुरुआत राजा विक्रम सिंह ने की थी. तब यह पूजा राजकोष के खर्च से ही जाती थी, जिसे बाद में आमलोगों ने आपसी सहयोग से करना शुरू किया.

Saraikela Kharsawan News: सरायकेला में दुर्गा पूजा का आयोजन करीब चार सौ वर्षो से पूरे विधि-विधान व परंपरा के साथ हो रहा है. बताया जाता है कि सन् 1620 में राजा विक्रम सिंह ने सरायकेला रियासत की स्थापना की थी. इसके कुछ साल बाद ही राजघराने ने स्थानीय जनता के सहयोग से राजवाड़ी परिसर में मां दुर्गा की पूजा की शुरुआत की, जो आज भी निरंतर जारी है. देशी रियासतों के विलय के बाद राजभवन के बहार आम जनता द्वारा पब्लिक दुर्गा पूजा कमेटी गठित कर पूजा अर्चना किया जाता है.

तब राजकोष से होती थी पूजा

इस पूजा के संबंध में सरायकेला के राजा प्रताप आदित्य सिंहदेव बताते है कि उस वक्त दुर्गा पूजा के आयोजन के लिये राजकोषागार से राशि खर्च किया जाता था. दुर्गा पूजा के लिये हर साल जनता से एक अतिरिक्त टैक्स लिया जाता था. टैक्स के रुप में वसूल की गयी राशि से ही पूजा की जाती थी.

आज भी हो रहा परंपरा का निर्वहन

वर्ष 1948 में देसी रियासतों का बिलय भारतीय संघ में हुआ. तब स्थानीय लोगों की ओर से पूजा कमेटी गठित की जाने लगी. हालांकि लोगों ने परंपरा को कायम रखते हुए पूजा कमेटी का अध्यक्ष राजघराने के प्रमुख यानि राजा ही रखा. वर्तमान में राजा प्रताप आदित्य सिंहदेव पूजा कमेटी के अध्यक्ष हैं. वर्तमान में पूजा के आयोजन में खर्च होने आम लोगों के सहयोग से हो होता है.

भव्य तरीके से होता मां दुर्गा की पूजा

शुरुआत में मां भगवति की पूजा छोटे पैमाने पर होती थी, लेकिन कालांतर में यह पूजा व्यापक पैमाने पर होने लगी. स्थानीय लोगों के सहयोग से यहां मां के भव्य मंदिर का भी निर्माण कराया गया है. यहां षष्ठी यानि बेल वरण के साथ पूजा शुरू होती है, जो विजयादशमी को समाप्त होती है.

तांत्रिक पद्धति से होती है पूजा

पब्लिक दुर्गा पूजा मंदिर में मां की पूजा तांत्रिक पद्धति से होती है. मंदिर में तीन दिनों तक चंडीपाठ चलता है. इसके तहत अब माता के चरणों में कूष्मांड (भतुआ) की बलि चढ़ायी जाती है. अष्टमी व नवमी की संधिवेला में कूष्मांड की बलि चढ़ाई जाती है. मान्यता के अनुसार कूष्मांड की बलि नरबलि के समान है, इसलिए यहां कूष्मांड की बलि चढ़ाई जाती है.

रिपोर्ट : शचिंद्र कुमार दाश व प्रताप मिश्रा

Rahul Kumar
Rahul Kumar
Senior Journalist having more than 11 years of experience in print and digital journalism.

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