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निराला भिखारी ठाकुर हर रूप में प्रेरित करते हैं. नाटककार, गीतकार, कवि, भाषासेवी, गवइया. लेकिन समझ में नहीं आता कि वह बिहार समेत पूरी हिंदी पट्टी के लिए प्रेरणा क्यों नहीं बन पाते. भिखारी ने 30 की उम्र के बाद पढ़ना-लिखना शुरू किया. उसके पहले उस्तरा चला रहे थे. जिस उम्र में कुछ नहीं करने […]

निराला
भिखारी ठाकुर हर रूप में प्रेरित करते हैं. नाटककार, गीतकार, कवि, भाषासेवी, गवइया. लेकिन समझ में नहीं आता कि वह बिहार समेत पूरी हिंदी पट्टी के लिए प्रेरणा क्यों नहीं बन पाते. भिखारी ने 30 की उम्र के बाद पढ़ना-लिखना शुरू किया. उसके पहले उस्तरा चला रहे थे.
जिस उम्र में कुछ नहीं करने पर किसी नौजवान के भविष्य का मर्सिया पढ़ दिया जाता है, उस उम्र में भिखारी अक्षरों की दुनिया में प्रवेश करते हैं. तब अंगरेजी राज था, लेकिन उन्हें अपनी भाषा ही समझ में आती है और उसी में रमने लगते हैं. और फिर जो करते हैं, उसे आज दुनिया जानती है. उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि कोई नया काम, विशेषकर सृजन कर्म शुरू करने के लिए कोई तय उम्र नहीं होती. भिखारी मीडिया के दौर में नहीं थे, जहां कोई ‘ड्रामेबाजी’ से अपना कैरियर चमका ले. वह कलाकारों का दल बनाते हैं और उसके भरण-पोषण का भी इंतजाम करते हैं. जहां जाते हैं, वहां से माला उठाने को कहते हैं. यानी जो खाना-दाना देगा, वहीं जाते थे.
वह एक गरिमा, एक मान-सम्मान चाहते थे. खुद का ही नहीं, अपने पूरे दल का.इस बार भिखारी की जयंती पर उन्हें थोड़े बड़े दायरे में याद किया जा रहा है. नाटक-गीत-संगीत का आयोजन हो रहा है. विचार गोष्ठियों की भरमार है. स्मारिकाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन कुछ खटकता भी है. दो साल पहले भिखारी ठाकुर की 125वीं जयंती मनायी गयी थी. उसी साल बिहार के दो बड़े राजनेताओं का भी 125 साल पूरा हुआ था.
बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह का और बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिंह का. दोनों नेताओं की 125वीं जयंती राजनीतिक दलों और सरकार ने बड़े स्तर पर मनायी था, लेकिन भिखारी उनसे छूट गये थे. भिखारी इस साल भी राजनीति से छूटे हुए दिख रहे हैं. सरकार एक आयोजन उनके गांव कुतुबपुर में करती है, जो रस्म अदायगी की तरह इस साल भी हो रहा है. राजनीति बिहार के सबसे बड़े सांस्कृतिक नायक से इतना अलगाव-दुराव क्यों दिखाती है, जबकि अभी भिखारी के संस्कृतिकर्म के साथ उसके राजनीतिक पाठ की ज्यादा जरूरत है. इसके उलट संस्कृतिकर्मी अपनी धार, तेज और ताप खोकर राजनीति की शरण में जा रहे हैं.
हिंदी पट्टी की राजनीति में पिछले दो दशकों से सोशल इंजीनियरिंग एक मुहावरे की तरह मजबूती से उभरा है और राजनीति का केंद्रीय बिंदु भी बना है. भिखारी ने अपने तरीके से यह बात बहुत पहले की थी. उन्होंने गंवई बिंबों का इस्तेमाल किया था. गांव में लोग खाना खाते समय कुरता निकाल देते थे, सिर्फ धोती-गमछा में रहते थे. कुरता-धोती और गमछा के बहाने भिखारी ने लिखा-
गूह-मूत के रास्ता तोपल. से धोती बा मन ब चोपल.
नेटा-थूक रहत लपटाईल, तबहूं गमछी सूध कहाइल.
काहे दो काढ़ भोजन कईलन. कुरता से काम कुकरम भइलन.
उपर से नीचे के निमन कहईलन. बीचे अबलू छांटल गईलन.
सूत के कुरता सूत के धोती. सूत से सूत सियाई होती.
चारू जना के एके जात. भात खात कुरता सरमात.
तवने सूत जनेव कहावत. जात से पदवी बड़का पावत.
कहत भिखारी सहजे बात. हमरा नइखे इहे बुझात.
भिखारी की इन पंक्तियों में राजनीति के गहरे मर्म हैं. वे उस जमाने में ही राजनीति के मोरचे पर सोशल इंजीनियरिंग की बात करते हैं. लेकिन भिखारी की बात सुनी नहीं जाती. भिखारी की बात राजनीति न तब सुनती थी, न आज सुन रही है. राजनीति के लोगों को इन पंक्तियों का मर्म समझ में आता, तो आज भिखारी सिर्फ सांस्कृतिक नहीं, बड़े राजनीतिक नायक भी होते.
(लेखक तहलका से संबद्ध हैं)
Prabhat Khabar Digital Desk
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