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पुलिस के नेचर और स्ट्रर में परिवर्तन की जरूरत-2 आरके मल्लिक द्वितीय प्रशासक सुधार आयोग ने अपनी पांचवीं रिपोर्ट में पुलिस से संबंधित सभी विषयों का बहुत गहनता से अध्ययन किया है और विस्तृत रिपोर्ट जारी की है. आयोग द्वारा सुधार के लिए जो सुझाव दिये गये हैं, उन पर अभी भी बहस की गुंजाइश […]

पुलिस के नेचर और स्ट्रर में परिवर्तन की जरूरत-2
आरके मल्लिक
द्वितीय प्रशासक सुधार आयोग ने अपनी पांचवीं रिपोर्ट में पुलिस से संबंधित सभी विषयों का बहुत गहनता से अध्ययन किया है और विस्तृत रिपोर्ट जारी की है. आयोग द्वारा सुधार के लिए जो सुझाव दिये गये हैं, उन पर अभी भी बहस की गुंजाइश है. अंतिम निर्णय लेने के पहले उस पर निष्पक्ष भाव से अध्ययन की आवश्यकता है. झारखंड के परिवेश में तत्काल निम्न क्षेत्रों में कार्रवाई करने पर कुछ हद तक पुलिस को प्रजातांत्रिक समाज की अपेक्षा के अनुरूप खड़ा किया जा सकता है.
01-अब वक्त आ गया है कि बिना विलंब किए पुलिस अधिनियम 1861 की जगह राज्य सरकार द्वारा एक नया पुलिस अधिनियम लागू किया जाये. पुराने पुलिस अधिनियम के कारण पुलिस एक अलोकप्रिय संगठन बन गयी है, क्योंकि यहां स्वैच्छिक शक्ति का प्रभाव साधारण कारणों से अधिक है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रकाश सिंह बनाम भारत सरकार मामले में दिये गये निर्णय के बाद कई राज्यों द्वारा नया पुलिस अधिनियम लागू किया गया है. केरल द्वारा बहुत ही प्रगतिशील कानून लागू किया गया है. यह वर्तमान समय में नागरिकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरता है. बिहार द्वारा ऐसा कानून लागू किया गया है, जिसने राज्य को इस मामले में वर्ष 1861 के पीछे धकेल दिया है.
राजनीतिक नेतृत्व को इस दिशा में सोचना होगा कि क्या उन्हें ऐसी पुलिस व्यवस्था चाहिए, जो समाज को बेहतर बना सके तथा शैक्षिक एवं सामाजिक रूप से मजबूत हो रही समाज की अपेक्षाओं पर खऱा उतर सके. या ऐसी पुलिस चाहिए, जो समाज के बहुत छोटे से हिस्से को खुश करने के लिए काम करे, जिनके पास सत्ता या पावर है. सोली सोराबजी कमेटी द्वारा एक आदर्श पुलिस अधिनियम का प्रारूप तैयार किया गया है, जो काफी समीचीन है और जिसे केंद्र में रख कर एक नया अधिनियम बनाया जा सकता है.
02- वर्तमान पुलिस संरचना प्रमुख रूप से सिपाही एवं हवलदार पर केंद्रित है.
इस व्यवस्था में सुधार तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक कि इसमें पदाधिकारियों की प्रमुखता कायम नहीं की जाती. वर्तमान में पुलिस बल का 86 प्रतिशत सिपाही-हवलदार है और पदाधिकारियों की संख्या सिर्फ 14 प्रतिशत है. धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग की अनुशंसा थी कि यह अनुपात 45:55 का होना चाहिए. इस अनुपात को प्राप्त करना तो कठिन है, लेकिन अगले चार-पांच सालों में पदाधिकारियों तथा कर्मियों के अनुपात को बढ़ाकर 30:70 पर लाया जा सकता है. बिना इस सुधार के ‘बीट पेट्रोलिंग’ के लिए पदाधिकारियों की संख्या को नहीं बढ़ाया जा सकता.
यह बात अनुभव की जा रही है कि दैनिक पुलिस कार्य में मानवीय सूचना की भूमिका तकरीबन समाप्त हो गयी है और पुलिस पूरी तरह तकनीकी सूचना पर काम कर रही है. यह वर्तमान में पुलिस की सबसे बड़ी कमजोरी है. पुलिस और जनता के बीच संवाद को पुन: स्थापित करने का एकमात्र उपाय यह है कि बीट पेट्रोलिंग कर रहे पुलिस पदाधिकारी को अधिक संवेदनशील बनाया जाये. इसके लिए यह जरूरी है कि स्थानीय तौर पर बीट पुलिस पदाधिकारी के रूप में सहायक अवर निरीक्षक (जमादार) या इससे आगे के पदाधिकारी की संख्या को पर्याप्त बढ़ाया जाये. इससे यह फायदा होगा कि स्थानीय तौर पर पदाधिकारी को अपने इलाके की तमाम गतिविधियों की सूचना प्राप्त होती रहेगी और इससे अपराधी एवं आतंकी गतिविधियों पर रोक लगाने में और अधिक सफलता मिलेगी.
(जारी)
लेखक एसटीएफ के आइजी हैं और ये उनके निजी विचार हैं.
Prabhat Khabar Digital Desk
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