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आरक्षण की मूल भावना तो पीछे छूट रही है

प्रो बद्री नारायण सामाजिक चिंतक जेएनयू गुजरात में पटेल आरक्षण की मांग कर रहे हैं तो राजस्थान में जाटों को भी आरक्षण चाहिए. ये अपने-अपने राज्य के संपन्न और सामाजिक रूप से शक्तिशाली जातियां हैं. अगर इसी तरह से दूसरे राज्यों में भी अन्य जातियां मांग करने लगें तो देश को अराजकता की ओर जाने […]

प्रो बद्री नारायण

सामाजिक चिंतक जेएनयू

गुजरात में पटेल आरक्षण की मांग कर रहे हैं तो राजस्थान में जाटों को भी आरक्षण चाहिए. ये अपने-अपने राज्य के संपन्न और सामाजिक रूप से शक्तिशाली जातियां हैं. अगर इसी तरह से दूसरे राज्यों में भी अन्य जातियां मांग करने लगें तो देश को अराजकता की ओर जाने से नहीं बचाया जा सकेगा. सबसे चिंताजनक बात यह है कि कोई भी राजनीतिक दल इस आग में हाथ नहीं डालना चाहता है. वे इस मुुद्दे पर साफ-साफ बात कहने से कतरा रहे हैं. इसका हल व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन से ही निकल सकेगा.

पिछले कुछ सालों से देश के विभिन्न इलाकों में कुछ समुदाय या तो अनुसूचित जाति या फिर पिछड़े वर्ग में शामिल होने को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. हालांकि उनकी सामाजिक स्थिति पर गौर करें तो यह मांग आरक्षण की मूल भावना के पूर्णत: खिलाफ है. आजादी के बाद समाज के सबसे शोषित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में की गयी. इसके ऐतिहासिक पहलू थे कि सदियों से शोषित समुदाय को आरक्षण के जरिये समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सके. लेकिन आज आरक्षण की मांग आर्थिक फायदे से जुड़ गयी है. सामाजिक स्थिति के उलट आज सभी जातियां इसका फायदा उठाना चाहती है. यानी आरक्षण सरकारी सुविधाओं का लाभ लेने का एक जरिया हो गया है.

गुजरात में इन दिनों पिछड़े वर्ग के तहत आरक्षण की मांग को लेकर पटेल समुदाय आंदोलनरत है. हालांकि पटेल समुदाय को गुजरात का सबसे ताकतवर समुदाय माना जाता है. गुजरात की कुल आबादी में इस समुदाय की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है. आर्थिक और सामाजिक तौर पर भी यह समुदाय मजबूत है. हीरा कारोबार से लेकर प्रवासी भारतीयों तक में पटेल प्रभावी भूमिका में हैं. ऐसे में इस समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग कानूनी और सामाजिक तौर पर जायज नहीं लगती है. इसी प्रकार जाट समुदाय भी काफी समय से पिछड़े वर्ग में आरक्षण की मांग करता रहा है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग को खारिज कर दिया है. राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय सामाजिक और आर्थिक तौर पर संपन्न माना जाता है.

इस तरह की स्थिति के लिए सरकारों की नीतियां जिम्मेवार हैं. सरकारों ने राजनीतिक फायदे के लिए विभिन्न जातियों के आरक्षण की मांग को आजादी के बाद से लगातार स्वीकार किया, जबकि संविधान में इसकी व्यवस्था सिर्फ 10 साल के लिए की गयी थी. ऐसे में अब हर जाति के लोग आरक्षण का लाभ लेने की इच्छा रखने लगे हैं. जाहिर है, यह मांग अभी और बढ़ेगी. अगर आरक्षण के प्रावधानों को लेकर सख्त पाबंदी नहीं होगी, तो इसका दायरा बढ़ता ही जायेगा. आरक्षण के मसले पर हर पार्टी और सरकार दबाव में है.

आंध्र प्रदेश में दलित जातियों में आरक्षण को लेकर संघर्ष चल रहा है. कई जातियों का आरोप है कि इसका फायदा सिर्फ कुछ जातियों को ही मिल पा रहा है. आज आरक्षण का विरोध वही समुदाय कर रहा है, जिसे लगता है कि उसके लिए रास्ते बंद हैं. जिस समुदाय को थोड़ी भी उम्मीद दिखती है, वह आरक्षण जारी रखने और इसमें शामिल होने के लिए बेचैन है. दूसरी ओर आरक्षण की श्रेणी में शामिल वर्ग मिल कर दूसरे समुदायों की आरक्षण की बढ़ती मांग के विरोध में आवाज भी उठा रहे हैं.

(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)

Prabhat Khabar Digital Desk
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