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चीन में बढ़ता शी जिनपिंग का दबदबा

पहली बार किसी नेता को एक साथ चार पद चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब से राष्ट्रपति बने हैं, लगातार सुर्खियों मेें रह रहे हैं. चीन में उनकी बढ़ती ताकत को देख कर राजनीति के जानकारों को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के पहले चेयरमैन माओ त्से तुंग के दौर की याद आने लगी है. सामूहिक […]

पहली बार किसी नेता को एक साथ चार पद

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग जब से राष्ट्रपति बने हैं, लगातार सुर्खियों मेें रह रहे हैं. चीन में उनकी बढ़ती ताकत को देख कर राजनीति के जानकारों को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के पहले चेयरमैन माओ त्से तुंग के दौर की याद आने लगी है. सामूहिक नेतृत्व में विश्वास रखनेवाली पार्टी अब एकल नेतृत्व को बढ़ावा देने में लगी है. पढ़िए एक रिपोर्ट.

अब तक चीन के सर्वोच्च नेताओं में माओ त्से तुंग और डेंग जियाओ पिंग की गिनती होती रही है. इन दोनों के बाद अब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग इतने ही ताकतवर बन गये हैं, बल्कि एक तरह से कहें तो अब तक के सबसे ताकतवर राजनेता. 14 मार्च, 2013 को राष्ट्रपति बने शी जिनपिंग चीन की कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीसी) के महासचिव हैं. वह पीपुल्स लिबरेशन आर्मी(पीएलए) के अध्यक्ष हैं. अप्रैल, 2016 में वह नवगठित पीएलए साझा कमान के कमांडर-इन-चीफ चुने गये थे. और अब खबर आ रही है कि पिछले 27 अक्तूबर को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की एक गोपनीय बैठक हुई थी.

इस बैठक में उन्हें पार्टी नेतृत्व का सर्वोच्च नेता (कोर लीडर) नियुक्त कर दिया गया. चीनी राजनीति पर नजर रखनेवाले जानकार मानते हैं कि राजनीति में एेसे पद का काफी महत्व होता है.

अब से पहले चीन में किसी अन्य नेता के पास एक साथ चार पद नहीं थे. शी जिनपिंग के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति हु जिंताओ को कभी भी ‘कोर’ का पद नहीं दिया गया था. वह भी कोई कम ताकतवर नहीं थे. लेकिन, तब पार्टी की पोलित ब्यूरो स्टैंडिंग कमिटी (पीबीएससी) ‘सामूहिक नेतृत्व’ के सिद्धांत पर बल देती थी. और अब सामूहिक नेतृत्व में विश्वास रखनेवाली पार्टी ‘एकल नेतृत्व’ को बढ़ावा दे रही है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का अखबार ‘पीपुल्स डेली’ ने भी अपने एक संपादकीय में लिखा है कि “ शी को ‘कोर’ बनाना जरूरी था ताकि ‘पार्टी और देश के आधारभूत हितों’ की रक्षा की जा सके.”

प्रसिद्ध अंतराष्ट्रीय समाचार पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ के अनुसार ‘कोर’ के पास औपचारिक रूप से कोई शक्ति नहीं होती है.

मगर यह तीन कारणों से महत्वपूर्ण है. पहला, यह पार्टी और सत्ता में स्टेटस को दर्शाता है. चीनी समाज में ‘स्टेटस’ का बहुत महत्व है. दूसरी बात, इससे नीचे पदस्थ अधिकारियों- कर्मचारियों में यह संदेश जाता है कि उन्हें किसकी बात

सुननी है. पिछले दो सालों में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और चीनी प्रधानमंत्री ली केकियांग के बीच आर्थिक नीतियों को लेकर असमंजस की स्थिति थी. दोनों के बयान एक-दूसरे से मेल नहीं खाते थे. अब साफ हो गया कि शी की बात ही अंतिम होगी. और तीसरी बात, इससे शी को यह मौका हासिल होगा कि वह ‘अपने लोगों’ को पार्टी में आगे बढ़ा पाने में कामयाब होंगे.

वर्ष 2017 में सीपीसी की महासभा होनी है. पार्टी के अंदर के लोग मानते हैं कि शी इस महासभा से पहले अपनी विराट होती ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं. इस महासभा में पीबीएससी के सात सदस्यों में से पांच और सेंट्रल कमिटी के सदस्यों को हटा कर उनके स्थान पर अन्य लोगों को रखा जायेगा.

सिर्फ दो लोग- शी और प्रधानमंत्री ली केकियांग ही अगले पांच साल के लिए अपने पद पर बने रहेंगे.

चीन की राजनैतिक व्यवस्था बहुत पारदर्शी नहीं है. सोशल मीडिया के युग में भी ढेर सारी सूचनाएं आम जन तक पहुंच ही नहीं पाती हैं. ब्रूकिंग्स इंस्टिट्यूशन में चीन की राजनीति के विशेषज्ञ चेंग ली चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बढ़ते रुतबे के बारे में मानते हैं कि पड़ोसियों और धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था की चुनौतियों को देखते हुए ‘पार्टी के शासन’ को सुरक्षित रखने के लिए उठाया गया तात्कालिक कदम है.

राष्ट्रपति बनते ही शी जिनपिंग नेे भ्रष्टाचार के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाया. इस मुहिम ने उन्हें रातोंरात लोकप्रिय बना दिया. जानकार बताते हैं कि शी ने इस मुहिम का उपयोग अपने राजनीतिक विरोधियों को निपटाने में भी किया. शी ने पद पर आने के बाद छोटे स्तर के भ्रष्ट अफसरों के साथ ही पार्टी के बड़े भ्रष्ट नेताओं को भी सलाखों के पीछे भेजा. हु जिंताओ के दौर में ताकतवर सुरक्षा सलाहकार रहे झाउ योंगकांग के साथ-साथ उनसे जुड़े दर्जन भर अफसरों को गिरफ्तार किया गया. जून, 2015 में झाउ पर मुकदमा चलाया गया. इस घटना का संदेश दूर तक गया: अगर चीन के सबसे शक्तिशाली नेताओं में से एक का ऐसा हश्र हो सकता है तो फिर किसी का भी हो सकता है. पार्टी के साथ-साथ सरकारी तंत्र में भी नीचे तक सनसनी फैल गयी.

कई चीनी अर्थशास्त्री चीन की मौजूदा आर्थिक स्थिति को संतोषजनक नहीं मानते हैं. शी ने वर्ष 2010 की जीडीपी को दोगुना करने का वादा किया था, मगर यह लक्ष्य नहीं पाया जा सका. पार्टी के राजनीतिक लक्ष्य आर्थिक नीति को प्रभावित कर रहे हैं. वे शी की बढ़ती ताकत को चीन की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार कमजोर पड़ने से इसकी वैधानिकता पर बल देने के लिए नये रास्ते के रूप में देखते हैं.

चीन में शी जिनपिंग की बढ़ती ताकत से चीन को कितना फायदा होगा या चीन की आर्थिक दशा बेहतर होगी, यह तो आनेवाला समय बतायेगा. पर इतना तो साफ है कि शी अभी दुनिया में एकमात्र ऐसे राजनेता बन गये हैं जिसने अपनी युक्तियों से चीन की ‘सर्वोच्च’ सत्ता हासिल कर ली है. जानकार बताते हैं कि चीन में माओ के बाद पहली बार किसी एक व्यक्ति के पास सारी शक्ति सिमट गयी है. बीजिंग फॉरेन स्टडीज यूनिवर्सिटी के कियाओ मो के अनुसार “शी जिनपिंग की अपील में लोकलुभावनवाद और राष्ट्रवाद का मिश्रण है.”

Prabhat Khabar Digital Desk
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