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थ्रीडी प्रिंटेड आंखें, दृष्टिबाधित बच्चों के चेहरे की लौटायेगी रौनक

थ्रीडी प्रिंटेड टेक्नोलॉजी ने दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में व्यापक बदलाव किया है़ अब यह तकनीक स्वास्थ्य क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव लाने जा रही है़ दृष्टिबाधित बच्चों के विकृत चेहरे को इस तकनीक के जरिये स्वाभाविक आकार देने में आरंभिक सफलता मिली है. साथ ही, उम्मीद जतायी गयी है कि इस तकनीक की मदद […]

थ्रीडी प्रिंटेड टेक्नोलॉजी ने दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में व्यापक बदलाव किया है़ अब यह तकनीक स्वास्थ्य क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव लाने जा रही है़ दृष्टिबाधित बच्चों के विकृत चेहरे को इस तकनीक के जरिये स्वाभाविक आकार देने में आरंभिक सफलता मिली है. साथ ही, उम्मीद जतायी गयी है कि इस तकनीक की मदद से इन बच्चों या वयस्कों की आंखों का समुचित इलाज किया जा सकता है. क्या है यह तकनीक और कैसे मिली है इस दिशा में कामयाबी समेत इससे संबंधित अन्य पहलुओं को रेखांकित कर रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज …
नीदरलैंड में आंख का इलाज करनेवाले विशेषज्ञों ने थ्रीडी प्रिंटिंग तकनीक के जरिये दृष्टिहीन बच्चों के चेहरे को स्वाभाविक रूप देने में आरंभिक कामयाबी हासिल की है. वैज्ञानिकों ने थ्रीडी प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से आर्टिफिशियल आइ स्ट्रक्चर यानी आंख के कृत्रिम ढांचे का सृजन किया है, जिसे कॉनफॉरमर्स कहा जाता है. फिलहाल पांच बच्चों के एक छोटे समूह पर इसका अध्ययन किया गया है.
विशेषज्ञों को यह भरोसा है कि इस तकनीक की मदद से माइक्रोफ्थेलमिया और एनोफ्थेलमिया नामक बीमारी से ग्रस्त बच्चों का इलाज किया जा सकेगा. इस बीमारी के शिकार बच्चों में जन्म से ही दृष्टिहीनता की दशा पायी जाती है या फिर उनकी आंखें बहुत ही कम विकसित हो पाती हैं. शोधकर्ताओं का कहना है कि इन अवस्थाओं में, जो एक या दोनों आंखों में हो सकती हैं, अब तक के अध्ययनों के अनुसार दुनियाभर में प्रत्येक एक लाख में से 30 बच्चों में पाया गया है.
आंख और दृष्टि के संदर्भ में दुनिया में लोकप्रिय संगठन एसोसिएशन फॉर रिसर्च इन विजन एंड ऑफ्थेलमोलॉजी (एवीआरओ) की सालाना बैठक के दौरान शोधकर्ताओं ने इस बात का जिक्र किया है कि भले ही इस तरह की आंखों से बच्चे को देखने में पूरी तरह से कामयाबी नहीं मिल पायेगी, लेकिन इसके जरिये उन्हें आइ सॉकेट की सुविधा मुहैया करायी जायेगी, ताकि कम-से-कम ऐसे बच्चों का चेहरा स्वाभाविक दिखे.
सही होंगे आइ सॉकेट्स
एवीआरओ से संबंधित और उक्त पांच बच्चों पर इस प्रयोग को अंजाम देने वाले एम्सटर्डम में यूवी यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के पोस्टडॉक्टरल फेलो मैके कुजटेन का कहना है, ‘यदि वहां आंख मौजूद नहीं है, तो वहां हड्डियों को पनपने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहक नहीं होते हैं.’
कुजटेन कहते हैं, ‘चूंकि इन परिस्थितियों वाले बच्चों में दोषपूर्ण आइ सॉकेट्स हो सकते हैं, चेहरा और आंखों के आसपास के क्षेत्र उनके प्राकृतिक ढांचे तक विस्तारित नहीं हो सकते. थ्रीडी आइ कॉनफॉरमर्स की खासियत यह है कि बच्चों के बड़े होने के दौरान घर में ही उनके अभिभावकों द्वारा अक्सर थोड़े बड़े आकार से बदल दिया जा सकता है. या फिर बच्चा जब महज कुछ महीने का हो, उसी दौरान तेजी से इसे अंजाम दिया जा सकता है.
ग्लास आइ
पारंपरिक तौर पर एक आंख खो चुके बच्चे या वयस्क पर ऑकुलर प्रोस्थेसिस डिवाइस को फिट किया जा सकता है. सामान्य तौर पर इसे ‘ग्लास आइ’ कहा जाता है, क्योंकि मूल रूप से इसे ग्लास से बनाया जाता है. लेकिन, अब इसे अधिकतर मेडिकल-ग्रेड प्लास्टिक एक्रिलिक से बनाया जाता है. ये ऑकुलर प्रोस्थेसिस ऑकुलेरिस्ट्स प्रोस्थेसिस के विशेषज्ञों द्वारा बनाये जाते हैं, जो प्रोस्थेस के फैब्रिकेशन और फिटिंग दोनों की के लिए ट्रेनिंग हासिल कर चुके होते हैं.
ऑकुलर प्रोस्थेसिस को स्फेरिकल और कुछ-कुछ आइबॉल, या कप की तरह होता है, जिसे एक मौजूदा, विकृत और गैर-क्रियाशील आंखों पर फिट किया जा सकता है. एक कॉनफॉरमर का इस्तेमाल अक्सर अस्थायी मदद के लिए किया जाता है, जब किसी दुर्घटना में आंख को नुकसान पहुंचता है. लेकिन ऑकुलर प्रोस्थेसिस या यहां तक कि कॉनफॉरमर को बनाना और उसे फिट करने में काफी मेहनत करना होता है.
माइक्रोफ्थेलमिया या एनाफ्थेलमिया के शिकार नवजात शिशुओं के लिए यह ज्यादा गंभीर मसला समझा जाता है, क्योंकि तेजी से बढ़ते हुए उनके सिर के लिए यह जरूरी है कि उसके आइ बॉल भी पूरी तरह से विकसित हों, ताकि आइ सॉकेट के ढांचे के मुताबिक उसका दायरा बढ़ता रहे.बिना इस तरह के प्रोत्साहन के बच्चे की खोपड़ी का वह हिस्सा भीतर की ओर दबा हुआ हो सकता है.
माइक्रोफ्थेलमिया या एनाफ्थेलमिया
थ्रीडी प्रिंटेड कॉनफॉरमर्स से इस चुनौती से निपटने में मदद मिल सकती है, क्योंकि इन्हें तेजी से प्रिंट किया जा सकता है. यह सस्ता होने के साथ ही मिलीमीटर से छोटे डायमीटर में भी विविध प्रकार के आकार में मुहैया कराया जा सकता है.
यूवी यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के ऑकुलोप्लास्टिक सर्जन डॉक्टर डॉन हार्टाेंग द्वारा किये जा रहे मरीजों के इलाज के दौरान थ्रीडी प्रिंटेड कॉनफॉरमर्स की उपयोगिता का परीक्षण किया गया. इस सेंटर में फिलहाल माइक्रोफ्थेलमिया या एनाफ्थेलमिया के करीब 50 मरीजों का इलाज किया जा रहा है. डॉक्टर हार्टों इस अध्ययन के सीनियर इनवेस्टिगेटर हैं.
नीदरलैंड में आंख की इन अवस्थाओं वाले बच्चों की स्टैंडर्ड देखभाल के एक हिस्से के तौर पर उन्हाेंने कई बार नवजातों के जीवन के तीन माह के उम्र में उनके सिर का अल्ट्रासाउंड और एमआरआइ स्कैन किया है. हालांकि, एमआरआइ के लिए एनेस्थेशिया की जरूरत होती है, क्योंकि स्कैन के दौरान बच्चों को शारीरिक तौर पर कुछ समय के लिए निष्क्रिय करना होता है.
लिहाजा, यह प्रक्रिया अपनेआप में बेहद गंभीर है और इसे बेहद सावधानी से अंजाम देना होता है, क्योंकि तीन माह के एक नवजात के लिए यह ज्यादा खतरनाक होसकता है.
स्कैन करने के बाद प्राप्त आंकड़ों से शोधकर्ताओं को यह सुनिश्चित करने में कामयाबी मिलती है कि आंख के सॉकेट के आकार और अन्य तरह की कैसी विकृतियां हैं और वे कितनी घातक हैं. आंख के प्रभावित हिस्से का इलाज करने के लिए कई बार डॉक्टर उस हिस्से में सॉफ्ट जेल भी इंजेक्ट करते हैं.
इन मापकों और प्राकृतिक विकास के आंकड़ों के आधार पर कुजटेन ने इन बच्चों के आगामी 10 वर्षों के विकास के लिए आंख का विकास चार्ट तैयार किया है. तब ग्रोथ चार्ट का अनुमान लगाने के लिए थ्रीडी प्रिंटर के इस्तेमाल से अनुकूलित कॉनफॉरमर्स का सृजन किया.
अासानी से फिट हो सकता है आइ सॉकेट
कॉनफॉरमर्स आंखों की तरह नहीं दिखते हैं. वास्तव में, प्राकृतिक या मौलिक रूप से आंखें हरी हाेती हैं, जिसमें आंख की पुतली का कोई रंग नहीं होता है. लेकिन माता-पिता के लिए यह इतना सुविधाजनक है कि ऑकुलरिस्ट्स से एक सामान्य ट्रेनिंग लेने के बाद वे अपने बच्चे के आइ सॉकेट में इसे अासानी से फिट कर सकते हैं. कुजटेन इस तथ्य से सहमति जताते हैं कि उपचार के इस तरीके से बच्चों को ज्यादा दर्द नहीं होता है.
इसके आरंभिक मूल्यांकन से यह प्रदर्शित हुआ है कि इलाज किये गये आंखों का सॉकेट वॉल्यूम करीब एक वर्ष के बाद औसत से दोगुना हो गया. शोधकर्ताओं को इस बात का भरोसा है कि यह इस ओर इशारा करता है कि सॉकेट वॉल्यूम में हुई यह बढ़ोतरी उल्लेखनीय है.
दृष्टिहीनों के लिए वरदान होगी बायोनिक आंख!
अभी तक किसी क्षतिग्रस्त आंख को बदलने के मामले में मेडिकल साइंस की क्षमता सीमित थी. मौजूदा तकनीकों के तहत किसी क्षतिग्रस्त आंख के कुछ हिस्से को ही बदला जा सकता है और वह भी किसी इनसान की मृत्यु की स्थिति में उसकी दान की गयी आंख के उत्तकों की मदद से. आनेवाले दिनों में बायोनिक आंखों की मदद से हम भविष्य में ऐसे लोगों की आंखों की रोशनी लौटाने में भी सक्षम हो सकते हैं, जो पूरी तरह नेत्रहीन हो चुके हैं.
बायोनिक आंख एक ऐसा उपकरण होता है, जो कुछ हद तक स्वस्थ प्राकृतिक आंख या फिर बाहर से लगाये गये कैमरे के जरिये रोशनी को कैद करती है. इन तसवीरों को उपकरण में लगे माइक्रो प्रोसेसर के जरिये इलेक्ट्रिकल फ्रिक्वेंसी में बदला जाता है और फिर एक कंप्यूटर चिप के जरिये उसे मस्तिष्क (विजुअल कॉरटेक्स) तक पहुंचाया जाता है.
रेडियोएक्टिव डिवाइस से आंखों के कैंसर का इलाज संभव
रेडियोएक्टिव डिवाइस से आंखों के कैंसर का सफल इलाज करने में एम्स, दिल्ली के डॉक्टरों को कामयाबी मिली है. इसे प्लाक ब्राकीथेरेपी कहा जाता है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबकि उत्तर भारत में पहली बार इस तरह की सर्जरी से तीन वर्ष के बच्चे की आंख के ट्यूमर को खत्म करने में कामयाबी मिली. यह एक बटन जैसी डिवाइस होती है, जो रेडियोएक्टिव होती है. सर्जरी के दौरान कैंसर ट्यूमर के ऊपर इस डिवाइस को लगा दिया जाता है.
इस डिवाइस से धीरे-धीरे रेडिएशन होता है और इससे निकलने वाला रेडिएशन केवल उसी जगह पर असर दिखाता है, जहां ट्यूमर होता है. चूंकि इस डिवाइस में रेडिएशन होता है, इसलिए इसे खरीदने और इस्तेमाल की सारी जानकारी अटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड को देनी होती है. हालांकि, डॉक्टरों को अभी इस दिशा में आरंभिक कामयाबी मिली है, लेकिन उम्मीद जतायी गयी है कि इससे बड़ी सफलता मिल सकती है.
Prabhat Khabar Digital Desk
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