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यादें : नेहरू जी की 53 वीं पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि
कुरबान अली
महात्मा गांधी के सच्चे वारिस, आदर्श राष्ट्रप्रेमी, अदभुत वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, इतिहासकार, स्वप्नद्रष्टा और आधुनिक भारत के निर्माता के खिताब से नवाजे जाने का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को जाता है तो नि:संदेह वे भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ही हैं.
आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने के साथ-साथ भारत के नवनिर्माण, वहां लोकतंत्र को स्थापित करने और उसे मजबूत बनाने में पंडित जी ने जो भूमिका निभायी, उसके लिए भारत हमेशा उनका ऋणी रहेगा. पंडित जी को राजनीति, पिता मोतीलाल नेहरू से विरासत में मिली थी, लेकिन उनके असली राजनीतिक गुरु महात्मा गांधी ही थे, जिन्होंने बाद में जवाहर लाल को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया.
भारतीय आजादी की लड़ाई की एक बड़ी और अहम घटना माने जाने वाले वर्ष 1919 के जलियांवाला बाग कांड के बाद से पंडित जी ने भारतीय राजनीति को दिशा देने में अहम भूमिका निभायी थी. उस समय वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली जौहर के कहने पर वे जालियांवाला कांड के कारणों की जांच के लिए बनायी गयी समिति के सदस्य बने थे.
कांग्रेस के इतिहास में अध्यक्षता सीधे पिता से पुत्र को मिलने की विरल घटना भी जवाहरलाल जी के संदर्भ में ही देखने को मिलती है, जब 1929 में लाहौर में रावी के तट पर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान पंडित मोतीलाल नेहरू की जगह गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का फैसला किया था. इसी अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में जवाहरलाल जी ने भारत को आजाद कराने का संकल्प लिया और उसके लिए तारीख भी तय कर दी. मगर पंडित जी के राजनीतिक जीवन से भी ज्यादा जिस चीज ने मुझे प्रभावित किया, वह उनकी इतिहास दृष्टि है.
‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ यानी भारत की खोज और ‘ग्लिम्पसेस ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्री’ यानी विश्व इतिहास की झलक उनकी ऐसी अदभुत किताबें हैं, जो स्कूली छात्रों के पाठ्यक्रम में शामिल की जानी चाहिए. जेल में रहते हुए बिना किसी संदर्भ के और इतिहास लेखन की विधिवत ट्रेनिंग लिये बिना उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा गांधी को जो पत्र लिखे और जिसने बाद में एक विशाल ग्रंथ का रूप लिया, वह पंडित जी की अदभुत कृति है. दुनिया के पांच हजार साल के इतिहास को जिस सलीके से पंडित जी ने लिपिबद्ध किया है उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती और इतिहासकारों ने इसे एच जी वेल्स की ‘आउटलाइन ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्री’ के समकक्ष का दर्जा दिया है.
इसी किताब में पंडित जी ने लिखा है कि महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर हमला किसी इसलामी विचारधारा से नहीं किया था, बल्कि वह विशुद्ध रूप से लुटेरा था और उसकी फौज का सेनापति एक हिंदू तिलक था. फिर इसी महमूद गजनवी ने जब मध्य एशिया के मुसलिम देशों को लूटा तो उसकी सेना में असंख्य हिंदू थे.
पंडित जी को ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ कहा जाता है और शायद इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद आर्थिक रूप से खस्ताहाल और विभाजित हुए भारत का नवनिर्माण करना कोई आसान काम नहीं था, लेकिन पंडित जी ने अपनी दूरदृष्टि और समझ से जो पंचवर्षीय योजनाएं बनायीं, उसके नतीजे वर्षों बाद मिले.
मेरी नजर में पंडित जी का दूसरा बड़ा काम भारत में लोकतंत्र को खड़ा करना था, जिसकी जड़ें अब काफी मजबूत हो चुकी हैं और जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती है और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है.
वर्ष 1952 में पंडित जी के नेतृत्व में देश के पहले आम चुनाव में स्वस्थ लोकतंत्र की जो नींव रखी गयी थी, वह आज तक जारी है (आपातकाल के 19 माह को छोड़ कर).अपनी जिंदगी के दो अन्य आम चुनाव 1957 और 1962 में अपनी पूरी शक्ति लगाकर उन्होंने इसे न सिर्फ और मजबूत बनाया, बल्कि अपने विपक्ष को भी पूरा सम्मान दिया. उन्होंने अपनी पार्टी के सदस्यों के विरोध के बावजूद 1963 में अपनी ही सरकार के खिलाफ विपक्ष की ओर से लाये गये पहले अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा कराना मंजूर किया और उसमें भाग लिया. जितना समय पंडित जी संसद की बहसों में दिया करते थे और बैठ कर विपक्षी सदस्यों की बात सुनते थे, उस रिकॉर्ड को अभी तक कोई प्रधानमंत्री नहीं तोड़ पाया है, बल्कि अब तो प्रधानमंत्री के संसद की बहसों में भाग लेने की परंपरा निरंतर कम होती जा रही है.
पंडित जी प्रेस की आजादी के भी बड़े भारी पक्षधर थे और कहा करते थे लोकतंत्र में प्रेस चाहे जितना गैर-जिम्मेदार हो जाये, मैं उस पर अंकुश लगाये जाने का समर्थन नहीं कर सकता. शायद इसकी वजह एक ये भी थी कि वे एक दौर में खुद पत्रकार थे और प्रेस की आजादी का महत्व समझते थे. इसके अलावा भारत को सही ढंग से समझने और अंतराष्ट्रीय मामलों की जो पकड़ पंडित जी की थी, वह भारत के किसी दूसरे नेता की नहीं हो पायी.
अपने प्रधानमंत्री काल में विदेश विभाग हमेशा उनके पास रहा और इसी दौरान उन्होने मार्शल टीटो, कर्नल नासिर और सुकार्णो के साथ मिल कर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी, जो शीतयुद्ध की समाप्ति से पहले तक काफी प्रभावी रहा.
मगर अंतिम समय में पंडित जी को कुछ नाकामियों का भी मुंह देखना पड़ा और चीन के साथ दोस्ती करना काफी मंहगा साबित हुआ. हालांकि चीन के साथ दोस्ती की पहल उन्होंने काफी ईमानदारी से की थी और पंचशील के सिद्धांत के साथ-साथ हिंदी चीनी भाई-भाई का नारा दिया, लेकिन 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमला करने से पंडित जी भी बहुत दुःखी हुए और कुछ लोगों का तो ये भी मानना है कि उनकी मौत का कारण यह सदमा भी था.
(लेखक राज्यसभा टीवी में मौखिक इतिहास विभाग के प्रमुख हैं.)
Prabhat Khabar Digital Desk
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