22.8 C
Ranchi

लेटेस्ट वीडियो

एक किमी दूरी से ही जाना जा सकेगा न्यूक्लियर रेडिएशन!

चेर्नोबिल, फुकुशिमा, भोपाल गैस त्रासदी जैसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां मानवीय त्रुटियों की वजह से हजारों-लाखों जिंदगियां प्रभावित हुईं़ विकिरण के प्रभाव में आनेवाले पीड़ित न केवल दुश्वारियों भरी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त होते हैं, बल्कि आनेवाली पीढ़ियां भी इस प्रभाव से नहीं बच पाती हैं़ न्यूक्लियर रेडिएशन की इस गंभीर समस्या […]

चेर्नोबिल, फुकुशिमा, भोपाल गैस त्रासदी जैसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां मानवीय त्रुटियों की वजह से हजारों-लाखों जिंदगियां प्रभावित हुईं़ विकिरण के प्रभाव में आनेवाले पीड़ित न केवल दुश्वारियों भरी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त होते हैं, बल्कि आनेवाली पीढ़ियां भी इस प्रभाव से नहीं बच पाती हैं़ न्यूक्लियर रेडिएशन की इस गंभीर समस्या का फिलहाल अब तक कोई संतोषजनक हल नहीं ढूंढा जा सका है़ लेकिन हालिया कामयाबी यह दर्शाती है कि बड़ी उपलब्धि न सही, एक किमी के दायरे में विकिरण के प्रभावों को परखना आसान हो जायेगा, जिससे बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि से बचा जा सकेगा़ उम्मीद जगानेवाली वैज्ञानिकों की इस आरंभिक कामयाबी के मायनों पर केंद्रित है आज का साइंस टेक्नोलॉजी पेज
वैज्ञानिकों ने पहली बार यह दर्शाया है कि रेडिएशन के फैलाव के स्रोत के नजदीक तक आये बिना करीब एक किमी की दूरी से ही उसकी पहचान की जा सकती है. अब तक यदि कहीं रेडिएक्टिव पदार्थ के होने या रेडिएशन निकलने की आशंका पैदा होती रही है, तो डिटेक्टर यानी इसका पता लगानेवाले विशेषज्ञ को उस स्थान पर एकदम नजदीक तक जाना हाेता है.
इसमें कई बार रेडिएशन के एक्सपोज होने, मसलन- बेहद मारक क्षमता वाले न्यूक्लियर बम होने की दशा में उससे होनेवाले नुकसान का जोखिम बढ़ जाता है. ऐसे में एक किलोमीटर की सुरक्षित दूरी से न्यूक्लियर मैटेरियल का पता लगाने की क्षमता हासिल होने से इससे होनेवाले संभावित नुकसान से बचा जा सकेगा. भविष्य में ‘चेर्नोबिल’ जैसी जगहों पर इनसानों को फिर से बसाने के लिए यह मूल्यांकन करना आसान होगा कि वहां पर रेडिएशन का स्तर कितना कम हुआ है.
एक सुरक्षित दूरी से रेडिएशन का पता लगाने की क्षमता हासिल होने का अनुमान भले ही पिछले काफी समय से लगाया जाता रहा हो, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है, जब वैज्ञानिकों ने वाकई में ऐसा कर दिखाने का प्रदर्शन किया है. प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित संबंधित आलेख के हवाले से ‘साइंस एलर्ट’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इसे प्रदर्शित करने के लिए वैज्ञानिकों ने गाइरोट्रोन नामक एक डिवाइस के उच्च पावर वाले पल्स्ड इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स का इस्तेमाल किया. इसके जरिये उन्होंने हवा में मौजूद सक्षम सैंपल की जांच की, जिससे उसमें किसी रेडिएशन का पता लगाया जा सकता है.
इलेक्ट्रोमैग्नोटिक बीम
इस तकनीक का एक प्रमुख हिस्सा उस प्वॉइंट पर शॉर्ट-लाइव्ड प्लाज्मा को पैदा करना है, जहां इलेक्ट्रोमैग्नेटिक बीम को फोकस किया गया है. दक्षिण कोरिया में यूसलान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के विशेषज्ञ और इस शोध टीम में बतौर सदस्य रहे इयूनमी चोई का कहना है, ‘इस परीक्षण के तहत स्पष्ट रूप से यह दर्शाया गया कि हमने जिस तरह की और जितने रेंज की फ्रिक्वेंसी का इस्तेमाल किया है, उसी के आधार पर इसकी क्षमता को निश्चित रूप से बढ़ाया जा सकता है और एक किमी की दूरी से ही रेडिएशन की पहचान की जा सकती है.’
चोई कहते हैं, ‘हमारे परीक्षण से यह नतीजा सामने आया है कि लंबी दूरी से रेडियोएक्टिव मैटेरियल के अस्तित्व की तलाश करना मुमकिन हो सकता है. खासकर, एक उच्च रेडिएशन क्षेत्र में, जहां तक इनसानों का पहुंचना तो फिलहाल मुमकिन नहीं, रोबोट भी नहीं पहुंच सकते हैं. ऐसी जगहों तक यह आशंकित गतिविधियों की तलाश करने में सक्षम हो सकता है. इसका बड़ा फायदा यह होगा कि अपराधियों और आतंकियों जैसे असामाजिक तत्वों द्वारा कहीं पर रखे गये बम या रेडिएशन फैलाने वाले पदार्थ की पहचान दूर से ही की जा सकेगी.’
प्लाज्मा का निर्माण
गहन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक पल्स को सृजित करते हुए और किसी वस्तु पर फोकस करते हुए शोधकर्ताओं ने प्लाज्मा का निर्माण करने में कामयाबी हासिल की थी. उस समय, शोधकर्ताओं ने प्लाज्मा के व्यवहार के दौरान यह देखा कि किस प्रकार उनका निर्माण होता है. इससे वे यह जानने में सक्षम हो सके कि क्या उसके आसपास कहीं और किसी प्रकार के रेडियोएक्टिव कण तो नहीं हैं.
ठोस, द्रव और गैस से इतर प्लाज्मा किसी पदार्थ का चौथा मैटर हो गया है. जब गैस अणुओं का पर्याप्त ऊर्जा के साथ विस्फोट होता है, तब उसके कुछ इलेक्ट्रॉन का नुकसान होता है, जिससे इनका गठन होता है.
प्लाज्मा अपेक्षाकृत कॉमन है- जो सूर्य में निर्मित होते हैं, क्योंकि ये बिजली कड़कने के दौरान परमाणु संलयन के तहत होते हैं. यदि आसपास में किसी तरह का रेडियोएक्टिव मैटेरियल नहीं हो, तो प्लाज्मा धीरे-धीरे सामान्य गैस में परिवर्तित हो जाता है. लेकिन जैसे ही बाद में वह रेडियोएक्टिव मैटेरियल के संपर्क में आता है, तो प्लाज्मा तेजी से तुरंत ही सामान्य गैस में तब्दील होने लगता है.
प्लाज्मा फिजिक्स में मौलिक शोध को बढ़ावा
एंटीना के आकार को बढ़ाकर प्लाज्मा बनाने के लिए बीम को फोकस करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, और ‘लो एयर टर्बुलेंस’ के साथ इस परीक्षण को देखते हुए शोधकर्ताओं का कहना है कि इस मैथॉड में यह क्षमता पायी गयी है कि इसके जरिये एक किमी की दूरी से रेडिएशन को डिटेक्ट किया जा सकता है.
प्रमुख शोधकर्ता चोई को यह उम्मीद है कि इस शोध के दौरान जो तथ्य पाये गये हैं, वे प्लाज्मा फिजिक्स में मौलिक शोध को आगे बढ़ायेंगे और भविष्य में परमाणु सामग्रियों से निकलने वाले विकिरण को ज्यादा दूरी से ही सुरक्षित तरीके से समझने में सक्षम होंगे. साथ ही इससे गैस डिस्चार्ज फिजिक्स में भी नये और दिलचस्प क्षेत्रों को समझने में आसानी होगी.
मानव-जनित रेडियोएक्टिविटी को जानने की चुनौती
परमाणु ऊर्जा संयंत्रों और परमाणु हथियारों समेत मानव-जनित कारणों से पैदा होनेवाली रेडियोएक्टिविटी के मामले बढ़ रहे हैं और इससे होनेवाले नुकसान को रोक पाना मुश्किल हो रहा है.
एक बार कहीं ऐसी दुर्घटना होने पर वहां इनसानी गतिविधियों को रोक देना चाहिए. उसके बाद जितनी जल्दी हो सके रेडियोएक्टिव पदार्थ की तलाश करनी चाहिए, ताकि उसे दुर्घटना के आसपास के आवासीय इलाकों तक पहुंचने से रोका जा सके. हाल ही में दिल्ली के तुगलकाबाद इलाके में रेलवे कंटेनर डिपो में रखे एक कंटेनर से रेडिएशन निकलने के कारण नजदीक के स्कूल में पढ़नेवाले सैकड़ों बच्चों की सेहत बिगड़ गयी. इन बच्चों को तत्काल अस्पताल में भरती कराना पड़ा.
समुद्री यातायात से ज्यादा तस्करी
देखा गया है कि रेडियोएक्टिव पदार्थों की ज्यादातर तस्करी समुद्री परिवहन के जरिये होती है. मौजूदा तकनीक के माध्यम से कंटेनर के बंदरगाह पर आने के बाद कारगो में उतारे जाने से पहले इन रेडियोएक्टिव पदार्थों की पहचान कर पाना मुश्किल होता है. साथ ही, रेडियोलॉजिकल डिस्पर्सल डिवाइस ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चुनौती पैदा की है. हाल ही में रेडियोएक्टिव ड्रोन के पाये जाने की खबरें आयी हैं. सुरक्षा के लिहाज से यह चिंता पैदा करता है. ऐसे में ड्रोन में मौजूद रेडियोएक्टिव पदार्थ को दूर से ही जानना जरूरी हो गया है.
चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना
26 अप्रैल, 1986 को तत्कालीन सोवियत संघ के चेर्नोबिल न्यूक्लियर पावर स्टेशन के भीतर हुई दुर्घटना के कारण हिरोशिमा पर गिराये गये बम के मुकाबले 10 गुना ज्यादा विकिरण फैल गया था. विश्व इतिहास में यह अपने किस्म की एक अनूठी घटना है. इस विस्फोट से पैदा हुए विकिरण का प्रसार इतना ज्यादा था कि इस कारण मध्य और दक्षिणी यूरोप तक वायुमंडल में रेडिएक्टिव गैस और डस्ट का फैलाव हो चुका था.
हालांकि, अधिकतर मलबा चेर्नोबिल के आसपास के इलाकों- यूक्रेन व बेलारूस में ही गिरा. लेकिन, रेडियोधर्मी पदार्थों के कण उत्तरी गोलार्ध के तकरीबन हर देश में पाये गये. इस हादसे में 32 व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी और अगले कुछ महीनों में 38 अन्य व्यक्ति रेडियोधर्मी बीमारियों के कारण मारे गये. 36 घंटों के अंदर करीब 60,000 लोगों को वहां से निकाल कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया. इस भयानक दुर्घटना के कारण साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोगों को वहां से विस्थापित होना पड़ा. 31 वर्ष बीत जाने के बावजूद आज भी हालात उसी तरह हैं. यह शहर अब पूरी तरह से उजड़ चुका है. हालांकि, वहां का बुनियादी ढांचा वैसे ही है, लेकिन इनसानी बसावट न होने के कारण शहर वीरान है.
Prabhat Khabar Digital Desk
Prabhat Khabar Digital Desk
यह प्रभात खबर का डिजिटल न्यूज डेस्क है। इसमें प्रभात खबर के डिजिटल टीम के साथियों की रूटीन खबरें प्रकाशित होती हैं।

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

संबंधित ख़बरें

Trending News

जरूर पढ़ें

वायरल खबरें

ऐप पर पढें
होम आप का शहर
News Snap News Reel