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मरने का डर और अधपके सपने

कोरोना काल के दौरान हौसला बढ़ाती कविता

मरने का डर नहीं है,

डर है उन सारे सपनों के

कच्चा रह जाने का, 

जो घुटन की ऊष्मा में

सुलगते,

खुली आँखों में पकते रहते हैंं,

जिन्हें पकाने के लिए 

मेरे पास

पर्याप्त मात्रा में ईंधन भी है,

जो कभी 

अनजाने, अनचाहे, बेमन से

तुम ने ही भेंट किया है,

तुम्हारी उसी भेंट

के लिफाफे में

खुद से छुपा कर,

चुपके से,

थोड़ी विवशता और 

बहुत सारा प्रयोजन

मैंने जोड़ दिया है.

हालाँकि उन अधपके

सपनों को पकाते 

अक्सर ही मेरी हथेलियां

झुुुलस जाया करती हैं,

पर जब कभी

ये परोसे जाते हैं

मन की थाली में,

तब इनके स्वाद की ठंडक

पाकर जैसे कोई

अनजानी सी,

प्यास बुझने लगती है,

जैसे अर्से से जागी आँखें,

थक कर सोने लगती हैं

और जैसे सौ की रफ़्तार से 

भागती धड़कन

सुस्ताने लगती हैै.

ये अधपके सपने

इतने वफ़ादार हैं कि,

फूलों के हार की तरह

झूलते रहते हैं

मेरे मन की दीवारों पर,

इनकी एक विशेषता

ये भी है कि गांठे

खुल जाने के बाद भी, 

ये बंधें रहते हैं आपस में,

सारी आशाओं के छोर 

छूट जाने के बाद भी,

ये जुड़े रहते हैं अपने केेेन्द्र से,

मानो ढूंढते रहें हैं खुद ही

अपने नये – पुुराने सिरे,

ताकि उनमें पिरो सके 

अपेक्षाओं के मोती,

जो उन्हें सहेजने वाले

धागे को

जाने अनजाने,

चाहे अनचाहे,

मन या बेमन से

केवल भरोसे, सब्र 

और प्रेम की ही भेंट दें,

ईंधन की नहीं.

18/04/20

रिया ‘प्रहेलिका’

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