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कोल्हापुरी चप्पल मामले में बुरी तरह फंसी ‘प्राडा’, भारतीय संस्कृति से लाभ उठाने का आरोप

Kolhapuri Chappal: प्राडा ने कोल्हापुरी चप्पल से प्रेरित सैंडल पेश कर भारत की सांस्कृतिक विरासत का लाभ उठाया, जिससे विवाद खड़ा हो गया. महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स ने इस पर आपत्ति जताई और उचित श्रेय व मुआवजे की मांग की. प्राडा ने डिजाइन प्रेरणा स्वीकार की, लेकिन आलोचना के घेरे में आ गई. यह मामला वैश्विक ब्रांडों द्वारा भारतीय शिल्पकला के उपयोग और सांस्कृतिक विनियोग पर गहरी बहस को जन्म देता है, वहीं कोल्हापुरी चप्पल को अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिली है.

Kolhapuri Chappal: भारत में मशहूर कोल्हापुरी चप्पल की नकल करके इटली के प्रसिद्ध फैशन कंपनी प्राडा बुरी तरह फंस गई है. प्राडा ने हाल ही में अपने मिलान फैशन वीक शो में नया फुटवियर कलेक्शन पेश किया है, जो भारत की पारंपरिक कोल्हापुरी चप्पल से काफी मिलता है. इटली की फैशन कंपनी प्राडा ने भी स्वीकार किया है कि उनकी नई लेदर फ्लैट सैंडल का डिजाइन भारत की सदियों पुरानी कोल्हापुरी चप्पलों से प्रेरित है.

महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स ने प्राडा को लिखी चिट्ठी

लंदन के प्रमुख अखबार द गार्जियन की वेबसाइट पर रिपोर्ट के अनुसार, आलोचना का मुद्दा यह नहीं है कि नई लेदर फ्लैट सैंडल का डिजाइन तैयार करने की प्रेरणा कहां से ली गई, बल्कि यह है कि प्राडा ने इस पारंपरिक भारतीय डिजाइन की उत्पत्ति को उजागर किए बिना उसे अपने ब्रांड के नाम से वैश्विक स्तर पर पेश किया. इस पर महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स ने सख्त आपत्ति जताई और कंपनी को पत्र लिखकर इस ‘सांस्कृतिक विनियोग’ पर नाराजगी जाहिर की.

महाराष्ट्र की पहचान है कोल्हापुरी चप्पल

महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष ललित गांधी ने स्पष्ट रूप से कहा कि कोल्हापुरी चप्पल एक हस्तनिर्मित पारंपरिक उत्पाद है, जिसे भारत सरकार ने 2019 में भौगोलिक संकेतक (जीआई) टैग भी दिया है. इस टैग का मतलब है कि इस चप्पल की उत्पत्ति कोल्हापुर (महाराष्ट्र) से हुई है और इसकी कारीगरी उस विशेष क्षेत्र की पहचान है.

जवाब में प्राडा ने दी दलील

प्राडा के कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व प्रमुख लोरेंजो बर्टेली ने जवाब में यह स्वीकार किया कि उनकी सैंडल डिजाइन कोल्हापुरी चप्पल से प्रेरित है और वे स्थानीय भारतीय कारीगरों के साथ सहयोग के लिए तैयार हैं. उनका कहना है कि सैंडल अभी डिजाइन के शुरुआती चरण में है और वे सार्थक संवाद शुरू करने की दिशा में कदम उठाएंगे.

ऊंची कीमत पर कोल्हापुरी चप्पलों को बेच रही प्राडा

द गार्जियन की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह विवाद सिर्फ एक फुटवियर की नकल का नहीं, बल्कि व्यापक स्तर पर फैशन इंडस्ट्री में चल रही एक पुरानी बहस का हिस्सा है, जहां वैश्विक ब्रांड पारंपरिक शिल्प को अपनाते हैं. लेकिन, मूल रचनाकारों को न श्रेय देते हैं, न मुआवजा. भारत में ऐसी चप्पलें महज 1,000 रुपये (करीब 12 डॉलर) में बिकती हैं, जबकि प्राडा का यह सैंडल 800 डॉलर से अधिक में बिक रहा है.

प्राडा ने सांस्कृतिक विनियोग को भुनाया

अपनी प्रतिक्रिया देते हुए आरपीजी ग्रुप के चेयरमैन हर्ष गोयनका ने कहा, “हमारे कारीगर हार जाते हैं, जबकि विदेशी ब्रांड हमारी संस्कृति से पैसे कमाते हैं.” इस बीच, विश्व बैंक के पूर्व कार्यकारी धनेंद्र कुमार ने इस मामले में एक अहम बात उठाई. उन्होंने कहा, ”भारतीय कारीगरों के पास अपने उत्पादों को वैश्विक बाजार में बेचने की पूंजी या प्लेटफॉर्म नहीं है.” उन्होंने कहा कि प्राडा ने ‘कोल्हापुरी’ नाम का उपयोग नहीं कर सीधे सांस्कृतिक विनियोग को भुनाया है.

कोल्हापुरी चप्पल को मिली वैश्विक पहचान

हालांकि, इस पूरे विवाद का एक सकारात्मक पहलू भी सामने आया है. स्थानीय डिजाइनरों का मानना है कि इस अंतरराष्ट्रीय विवाद से कोल्हापुरी चप्पल को वैश्विक पहचान मिल रही है और युवाओं में इसकी लोकप्रियता बढ़ सकती है. नीडलडस्ट की संस्थापक शिरीन मान का मानना है कि प्राडा की वजह से कोल्हापुरी चप्पल अब भारत के लक्जरी फुटवियर बाजार में “कूल” और आकांक्षात्मक विकल्प बन सकती है. गूगल ट्रेंड्स और खुदरा विक्रेताओं के अनुसार, प्राडा शो के बाद कोल्हापुरी चप्पलों की ऑनलाइन सर्चिंग और बिक्री में भी तेजी आई है.

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शिल्पकारों को सहयोग दें वैश्विक कंपनियां

यह मामला एक चेतावनी है कि जब भी वैश्विक ब्रांड किसी संस्कृति से प्रेरणा लें, तो उन्हें उसकी असली जड़ों और शिल्पकारों को उचित श्रेय और सहयोग देना चाहिए. अन्यथा, रचनात्मक प्रेरणा के नाम पर यह शोषण ही कहलाएगा.

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KumarVishwat Sen
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कुमार विश्वत सेन प्रभात खबर डिजिटल में डेप्यूटी चीफ कंटेंट राइटर हैं. इनके पास हिंदी पत्रकारिता का 25 साल से अधिक का अनुभव है. इन्होंने 21वीं सदी की शुरुआत से ही हिंदी पत्रकारिता में कदम रखा. दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद दिल्ली के दैनिक हिंदुस्तान से रिपोर्टिंग की शुरुआत की. इसके बाद वे दिल्ली में लगातार 12 सालों तक रिपोर्टिंग की. इस दौरान उन्होंने दिल्ली से प्रकाशित दैनिक हिंदुस्तान दैनिक जागरण, देशबंधु जैसे प्रतिष्ठित अखबारों के साथ कई साप्ताहिक अखबारों के लिए भी रिपोर्टिंग की. 2013 में वे प्रभात खबर आए. तब से वे प्रिंट मीडिया के साथ फिलहाल पिछले 10 सालों से प्रभात खबर डिजिटल में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. इन्होंने अपने करियर के शुरुआती दिनों में ही राजस्थान में होने वाली हिंदी पत्रकारिता के 300 साल के इतिहास पर एक पुस्तक 'नित नए आयाम की खोज: राजस्थानी पत्रकारिता' की रचना की. इनकी कई कहानियां देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.

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